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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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भी चला जाय, उसे अतिव्याप्त-लक्षण कहते हैं; तथा जो लक्षण अपने लक्ष्य में सर्वथा न रहे, उसे असंभवि लक्षण कहते हैं । दृष्टांतके लिए गौको ले लीजिए, यदि गौका लक्षण लालरंग कहा जाय तो वह अव्याप्त तथा अतिव्याप्त हैं । क्योंकि लालरंग किसी किसी गौमें पाया जाता है-सब गौमें नहीं पाया जाता, इसलिए तो अन्याप्त है और लालरंग गौको छोड़कर घोड़ा आदि पशुओं में भी पाया जाता है, इसलिए अतिव्याप्त है। यदि गौका लक्षण 'सूद जिसके हो वह गौ होती है' किया जाय, तो वह असम्भविलक्षण है, गौमें सर्वथा नहीं रहता । यहांपर पुरुषका जो चेतनालक्षण है, वह तीनों दोषोंसे रहित निर्दोष लक्षण है । चेतना नाम ज्ञानदर्शनका है, अर्थात् जीव के चेतनागुणकी ज्ञानदर्शनरूप दो पर्यायें है । कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि 'चेतनाजीव का अव्याप्तलक्षण है; मरे हुए मनुष्षमें चेतनालक्षण नहीं पाया जाता, जीते हुए मनुष्य में पाया जाता है। ऐसा कहनेवाले वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ हैं, वे मनुष्य शरीरको ही जीव समझ कर उसमें ज्ञानदर्शन मानते हैं, उन्हें यह नहीं मालूम कि शरीर तो पुद्गलजड़की पर्याय है, वह जीव नहीं है; जबतक उसमें जीव रहता है तबतक इस शरीरको जीता हुआ कहते हैं, जीव के निकल जाने पर उसे मृत शरीर कहते हैं । चेतना जीवका लक्षण कहा गया है, न कि शरीरका; इसलिए वह सदा जीवके साथ ही रहता है। जब शरीरसे जीव चला जाता है तो उसके साथ उसका चेतना गुण भी चला जाता है। चेतना गुण जीव को कभी नहीं छोड़ सकता, और जीव चेतनागुणको कभी नहीं छोड़ सकता । दूसरे शब्दोंमें यह कहना चाहिए कि जीव और चेतना दोनों ही एक वस्तु हैं, जो जीव है सो ही चेतना है, जो चेतना है सो ही जीव है । केवल गुणगुणी का भेदरूप कथन किया जाता है, जिससे जीवकी पहचान हो जाय । इसलिए जो शरीरको ही जीव मानते हैं, वे अज्ञानी हैं । कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि 'चेतना जीवका कोई गुणविशेष नहीं है किंतु
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