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________________ ३० ] [ पुरुषार्थ सिद्ध पाय उसे कहते हैं, जो वस्तुसे भिन्न होकर वस्तुका भेद करानेवाला हो । इसका उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है । छत्र राजाका लक्षण तो है, परंतु वह राजासे भिन्न पदार्थ है अंतरंगलक्षण उसे कहते हैं, जो वस्तुसे कभी भिन्न न हो सके, जैसे अग्निका लक्षण तेज ( उष्णता ), तेज वा उष्णता अग्निको छोड़कर कभी किसी दूसरे पदार्थ में नहीं जा सकती, तथा अन्य समस्त पदार्थों से अग्निका भेद कराती है । पुरुषका लक्षण चैतन्य ( चेतना ) किया गया है । यह पुरुषका अंतरंग लक्षण है, पुरुषको छोड़कर चेतना कभी किसी दूसरे पदार्थमें नहीं पायी जाती, तथा जगत्के अन्य समस्त पदार्थों से पुरुषमें भेद कराती है । परंतु 'स्वरूप' वस्तुका भेदज्ञान नहीं कराता किंतु वस्तुका परिचय करा देता है । यदि गौका स्वरूप कहा जाय तो कहना होगा कि गौ चार पैर, दो सींग, दो आँखें, चार थन, पीठ-पेट पूंछवाली होती है' - ऐसा कहनेसे सुननेवालेको गौका परिज्ञान हो जाता है । परन्तु चार पैर, दो सींग, दो आँखें आदि पदार्थ गौके लक्षण नहीं हो सकते, कारण लक्षण भेद करानेवाला होता है । चार पैर, दो सींग आदि अन्य पशुओंसे गौको जुदा नहीं कर सकते; वे भैंस, बकरी आदि पशुओं में भी पाये जाते हैं, इसलिये वे गौके लक्षण नहीं किंतु स्वरूप है । यहांपर पुरुषका लक्षण चैतन्य किया गया है । चेतना या चैतन्य पुरुषआत्मा को छोड़कर अन्य किसी अजीव पदार्थ में नहीं पाया जा सकता और नकभी जीव को छोड़ ही सकता है, इसलिए जीवका चेतनालक्षण ऐसा है कि जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव इन तीनों दोषोंसे रहित है । जिसमें ये तीन दोष नहीं आते हों वही लक्षण समीचीन निर्दोष कहा जाता है । जो लक्षण अपने समस्त लक्ष्य में न रह कर उसके एकदेशमें रहे, उसे अव्याप्तलक्षण कहते हैं । जो लक्षण अपने लक्ष्य में ही रहे और अलक्ष्य में www (१) जिसका लक्षण किया जाय, उसे लक्ष्य कहते हैं; जैसे गौका लक्ष्य किया जाय तो 'गौ'लक्ष्य कही जायगी । (२) जिस लक्षण में अव्याप्तिदोष पाया जाय, उस लक्षणको अव्याप्तलक्षण कहते हैं । इसीप्रकार जिस लक्षण में अतिव्याप्तिदोष पाया जाय, उस लक्षण को अतिव्याप्त लक्षण कहते है; तथा जिस लक्षणमें असंभवदोष पाया जाय, उस लक्षणको असंभविलक्षण कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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