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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [२६ पुरुषका स्वरूप अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगंधरसवर्णैः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुद व्ययध्रौव्यैः ॥६॥ अन्वयार्थ– ( स्पर्शगंधरसवर्णैः ) स्पर्श-रस-गंध-वर्णसे ( विवर्जितः ) रहित-वियुक्त (गुगपर्ययसमवेतः) गुणपर्यायों से विशिष्ट ( समुदव्ययधौव्यैः) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे ( समाहितः ) सहित संयुक्त (चिदात्मा ) चैतन्यमय आत्मा (पुरुषः ) पुरुष (अस्ति ) है । विशेषार्थ- इस ग्रंथका नाम 'पुरुषार्थसिद्धयपाय' है। यह नाम चार पदोंका समुदायरूप है-पुरुष, अर्थ, सिद्ध और उपाय । अर्थ नाम प्रयोजनका है, पुरुष के प्रयोजनकी सिद्धि (प्राप्ति ) के उपायको बतलानेवाला यह ग्रंथ है । पुरुष का प्रयोजन क्या है ? उसकी प्राप्ति किस उपाय से हो सकती है ? तथा पुरुष किसे कहते हैं ? इन बातोंका स्वरूप बतलाना आवश्यक है। सबसे पहले इस श्लोकमें पुरुषका स्वरूप कहा गया है । तीन विशेषणोंसे पुरुषका ‘स्वरूप' कहा गया है और चिदात्मा इस एक विशेषणसे उसका 'लक्षण' किया गया है । लक्षण और स्वरूपमें इतना अंतर है कि 'लक्षण' तो उस वस्तु को अन्य समस्त वस्तुओंसे भिन्न सिद्ध कर देता है और 'स्वरूप' वस्तु का भेदज्ञान नहीं कराता किंतु वस्तुका परिचय करा देता है । अर्थात्मिली हुई अनेक वस्तुओंमेंसे लक्षित वस्तुको जो जुदा कर दे उसे लक्षण कहते है; जैसे अनेक पुरुषोंके इकठे रहने पर राजाकी पहचान छत्रसे की जाती है, इसलिये बहुतसी भीड़में छत्र राजाका वाह्य लक्षण होता है । वाह्य-लक्षण और-अंतरंग लक्षण, ऐसे लक्षणके दो भेद हैं । वाह्यलक्षण __ इस गाथाका यह अर्थ है कि-यदि तू जिनमतमें प्रवृत्ति करता है, तो व्यवहारनय और निश्चयनयको मत छोड़ । यदि व्यवहारनयको छोड़ देगा, तो उसके बिना ब्रत, संयम, दान, पूजा, तप, आराधना, समाधिक धर्म, सामायिक आदि समस्त उत्तम एवं मोक्षसाधक धर्म नष्ट हो जायगा, तथा निश्चयनयको छोड़ देनेसे शुद्ध तत्वस्वरूपका कभी बोध नहीं हो सकेगा। इसलिये साध्य-साधकदृष्टिसे दोनों नयोंका अवलम्बन वस्तुस्वरूपका परिचायक है। विवक्षावश दोनोंमें मुख्य-गौण विवेचना की जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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