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________________ २८ ] उपदेश देनेका पात्र व्यवहार निश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८ ॥ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय अन्वयार्थ – (यः) जो ( तत्त्वेन ) वास्तवविकरूपसे ( व्यवहार निश्चयौ ) व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों नयोंको ( प्रबुध्य ) जानकर ( मध्यस्थः भवति ) मध्यस्थ हो जाता अर्थात् किसी एक नयका सर्वथा एकांती न बनकर अपेचादृष्टिसे दोनोंको स्वीकार करता है, ( स एव ) वह ही ( शिष्यः) उपदेश सुननेवाला ( देशनायाः ) उपदेशके ( अविकलं ) सम्पूर्ण (फलं ) फलको ( प्राप्नोति ) प्राप्त करता है । विशेषार्थ - व्यवहारका उपयोग कहांतक किया जाता है एवं वह दृष्टिसे प्रयोग में लाया जाता है, उसके उपयोगसे किस साध्यकी सिद्धि होती है, इन बातोंके परिज्ञानसे जो व्यवहारनयके रहस्यको जान चुका है, -इसीप्रकार वस्तुके शुद्धरूपके परिज्ञानसे निश्चयनयके स्वरूपको भलीभांति जान चुका है, वह पुरुष वस्तुस्वरूपका यथार्थ पर्यालोचक है । वह किसी एक नय पर एकांतरूपसे कभी आरूद नहीं हो सकता, अपेक्षादृष्टि से दोनोंहीसे वस्तुके रहस्यका सहज बोध कर लेता है । ऐसा पुरुष ही आचार्यों के जैनसिद्धांतरूप उपदेश ग्रहण करनेका पात्र है, सच्चा शिष्य है, और वही शिष्य उपदेशके अनेकांत वा स्याद्वादरूप अविकल (पूर्ण) फलको पा लेता है । * आचार्य भी इतने अनुदार एवं संकीर्ण बुद्धिवाले होते हैं, जो कि अज्ञानियोंको उपदेश भी नहीं देना चाहते ?' आचार्यका अभिप्राय इतना ही है, कि तीव्र मिथ्यात्ववालेको दिया हुआ उपदेश व्यर्थ जाता है, गाढ़ मिथ्यात्वी उस अनेकांत कथनसे लाभ नहीं ले सकता, इसीलिये उसे अपात्र कहा गया है । उपदेश देनेका निषेध नहीं किया गया है, उपदेश तो अज्ञानियोंको ही दिया जाता है, तिर्यञ्चों तक को दिया गया है परंतु भद्र अज्ञानी उससे लाभ उठाते हैं, अभद्र तीव्र मिथ्यादृष्टियोंको वह उपदेश ऊपर-वृष्टिकी तरह व्यर्थ चला जाता है । आचार्योंकी उदारताका तो हम उल्लेख ही क्या कर सकते हैं, वे यहां तक उदारभावना रखते हैं कि सब जीव क्रूरादि परभावोंसे हटकर स्व-स्वभावमें आ जांय । उनकी उस पवित्र भावनाका यहां तक प्रभाव पड़ता है कि उनके समीपमें आकर सिंहादि क्रूर जीव अपनी क्रूरता छोड़कर मैत्रीभावसे बैठते हैं । ऐसी भावना एवं ऐसा प्रभाव रखनेवालोंका उपदेश कितना उदार और अज्ञानको नष्ट करनेवाला हो सकता है, यह बतलानेकी आवश्यकता शेष नहीं रह जाती । - टीकाकार. * ''जइ जिणमयं पठिज्जह तो मा ववहार णिच्छयं मुच । एकण विणा छिज्जह तित्थं अएगेण तच्चं च ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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