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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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उदाहरण
हो जाता है। यह वास्तविक दृष्टि न रखी जाय; केवल पूजक दशाको ही निजरूप मान लिया जाय, तो वैसा मानना मिथ्यात्व है। इसप्रकारकी बुद्धि रखनेवाला-एकांती उपदेशका पात्र नहीं है।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥
अन्वयार्थ-( यथा) जिसप्रकार (अनवगीतसिंहस्य ) सिंहको नहीं बनने वाले पुरुषको ( माणवकः) बिल्ली-मार्जार (एव) ही ( सिंहः ) सिंहस्वरूप ( भवति ) भासती है, ( तथा ) उसीप्रकार ( अनिश्चयज्ञस्य ) निश्चयनयके स्वरूपको नहीं जाननेवाले पुरुषको ( व्यवहारः ) व्यवहारनय ( एव ) ही ( हि ) अवश्य (निश्चयतां ) निश्चयनयपनेको ( याति ) प्राप्त होती है।
विशेषार्थ-यदि किसी विवक्षाले बिल्लीको सिंह कहा जाय तो अपेक्षादृष्टिसे वह कथन ठीक है; जैसे सिंहकी आकृति, नेत्र, पूँछ आदि अवयवोंकी समानताउसीप्रकार क्रूरताके साथ झपटना आदि बातोंकी समानता देखकर कोई पुरुष, जिसे सिंहका भी परिज्ञान है; यदि बिल्लीको भी सिंह कहदे, तो उसका वह कहना समानाकारताकी दृष्टिसे ठीक है । परन्तु जो पुरुष सिंहको तो जानता नहीं; केवल सिंहका नाम सुनकर-'वह क्रूर नेत्रवाला होता है, ऊंची पूंछवाला होता है, पंजासे काम लेता है, इत्यादि बातोंको सुनकर विल्लीको ही वास्तविक सिंह मान बैठे, तो उसका वह मानना सर्वथा मिथ्या है। उसका ज्ञान वस्तुस्वरूपसे बाहर है । इसीप्रकार जोपुरुष वस्तुके निश्चय-स्वरूप तक तो पहुंचे नहीं, केवल निश्चयका नाम सुनकर व्यवहारचारित्रको निश्चय-चारित्र, व्यवहारसम्यक्त्वको निश्चय सम्यक्त्व, व्यवहार आत्मस्वरूपको निश्चय आत्मस्वरूप समझ कर उसी एकांत पर आरूढ़ हो जाय, तो वह पुरुष अज्ञानी है, ऐसी अज्ञानदशामें आचार्यों के उपदेशका भी प्रभावनहीं पड़ता; इसीलिये वह आत्मा उपदेशका अपात्र कहा गया है। (१) अज्ञानी उपदेशका पात्र नहीं है, इस कथनसे कोई यह दुरभिप्राय नहीं निकाल बैठे कि 'क्या
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