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________________ २६ ] __ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय इसीप्रकार उपचरित- असद्भूतव्यवहारनय भी तीन प्रकार है-स्वजाति उपचरितअसद्भूतव्यवहार,जैसे 'मेरे पुत्रादिक' । यहाँपर चेतनमें विवक्षा होने से स्वजातिसम्बन्धी है, परंतु पुत्रादिक जीवके नहीं हैं इसलिए उपचरित हैं और पुत्रादिक स्वयं जीवस्वरूप नहीं है इसलिए वह असद्भूतव्यवहारनयका विषय है इसीतरह विजाति-उपचरित-असद्भूतत्यवहारनयका विषय-वस्त्रांदि मेरे हैं' है। यहां पर वस्त्रादि अचेतन हैं इसलिए विजातिमें उपचार है। और स्वजातिविजाति-उपचरित-असद्भूतन्यवहारनयका विषय, जैसे-'देश राज्यादिक मेरे हैं-यहांपर स्वजाति विजाति दोनों हैं; बाकी उपचरितादि कल्पना पहलेके समान घटित कर लेना चाहिए। इत्यादि समस्त कथन व्यवहारनयका विषय है । बिना व्यवहारका आश्रयण किये निश्चयका अथवा वस्तुस्वरूपका कभी बोध नहीं हो सकता; अतएव जो वस्तुस्वरूपको नहीं जानते हैं, उनको बोध करानेके लिए आचार्यों ने व्यवहारनयका उपदेश दिया है । अर्थात् साध्य का परिज्ञान करानेके लिए उसे उपयोगी एवं उपादेय बतलाया है । व्यवहारनय साधक है, निश्चयनय साध्य है। जिन पुरुषोंने व्यवहारनयको ही साध्य समझकर उसीके विषय को वस्तुस्वरूप समझ लिया है, निश्चयनयका लक्ष्य सर्वथा छोड़ दिया है, वे पुरुष इतने अज्ञानी हैं कि उपदेश देनेके पात्र भी नहीं है । अर्थात् तीव्र मिथ्यात्वपरिणामोंके कारण उन पर उपदेशका असर नहीं होता । वास्तवमें जीवका बोध करानेके लिये उसके ज्ञानादिक गुणोंका उल्लेख किया जाता है, परंतु जो गुण गुणीको भेदरूप ही समझ बैठे, वह नितांत अज्ञानी है । इसीप्रकार देवपूजन आदि षट्कर्मों का उपदेश उसे शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये है; परन्तु जो पुरुष शुद्धात्मके लक्ष्यको सर्वथा भूलकर पूजादिक क्रियाओंमें केवल पूज्य - पूजकभाव तक ही वस्तुस्वरूप समझे, तो वह अज्ञानी है । अर्थात् पूजक उसी शुद्धात्माकी अशुद्ध अवस्था है, यदि 'कर्मपटल हटने पर पूजक स्वयं शुद्ध एवं पूज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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