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________________ पुरुषार्थसिद्धयु पाय ] [२५ ww निरूपणसे पूर्ण वस्तुस्वरूप नहीं होता, फिर भी उसी एक एक गुणनिरूपणसे भेदबुद्धिपूर्वक अनंतगुणात्मक द्रव्यका का बोध कर लिया जाता है। इसी भेदको विषय करनेवाला व्यवहारनय हैं । जीवका ज्ञान कहना यह अनुपचरित-सद्भत-व्यवहारनय है। जीवका ज्ञानगुण वास्तविक है, इसलिये वह सद्भत है। परन्तु जीव और ज्ञान दो नहीं होते, फिर भी जो गुण गुणीका भेद किया गया है, यही व्यवहारनयका विषय है । इसलिये 'जीवका ज्ञान' यह सद्भत व्यवहारनयका विषय है । 'जीवका क्रोध' यह उपचरितसद्भतव्यवहारनयका विषय है; कारण क्रोध वास्तवमें जीवका गुण नहीं है, किंतु पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे जीवमें होनेवाली वैभाविक पर्याय है । इसीलिये इसे उपचरित कहते हैं, परंतु पुद्गलके निमित्तसे जीवहीमें तो क्रोधपर्याय होती है, अर्थात् जीवके ही गुणका विकार है इसलिये वह सद्भत हैं, जीवसे उसके चरित्रगुणका भेद किया गया, जिसका क्रोध विकार है, यही व्यवहार है । इसलिये जीवको क्रोधी कहना यह उपचरित-सद्भत व्यवहारनयका विषय है। असद्भतव्यवहारनय तीन प्रकार है (१) स्वजाति असद्भ तव्यवहारनय-जैसे परमाणुको बहुप्रदेशी कहना । परमाणु बहुप्रदेशी नहीं है फिर भी उसे बहुप्रदेशी कहना यह असद्भत कथन है, परंतु स्वजातिसंबंधी है। (२) विजाति असद्भतव्यवहारनय-जैसे मतिज्ञानको मूर्त कहना । यहां पर आत्मासे ज्ञानका भेद करना व्यवहार है, मतिज्ञान कोई शुद्धपर्याय नहीं है इसलिये असद्भत है, और उसे मूर्त कहना विजाति है। (३) स्वजातिविजाति असद्भूतव्यवहारनय-जीव अजीव ज्ञेयमें ज्ञान, जीवमें ज्ञान यह स्वजातिका विषय है, और अजीवमें ज्ञान यह विजातिका विषय है, और अजीव ज्ञेयमें ज्ञान की कल्पना करना असदुद्भूतन्यवहार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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