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________________ [पुरुषार्थसिद्धय पाय mananananana nanananananansanananana nanananana व्यवहारदृष्टिसे ठीक है । अतः जो पदार्थ जिस विवक्षासे विवक्षित किया जाय, उसी विवक्षासे उसे घटित करना चाहिए । व्यवहारको छोड़ कर कोई कभी निश्चय तक नहीं जा सकता, व्यवहारके अवलम्बनसे ही जीव मुक्कावस्था तक पहुचँता है। इसलिए व्यवहार भी उपादेय एवं श्रेयस्कर नय है । जिसप्रकार निश्चयको सिद्ध करनेवाला व्यवहारका अवलम्बन करता है, उसीप्रकार व्यवहार पर चलनेवालेको निश्चय का लक्ष्य रखना भी नितांत आवश्यक है । उसको भूल जानेपर व्यवहार से किसकी सिद्धि की जाय, यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है। सर्वथा एकान्तपक्ष जैनधर्मके प्रतिकूल है । न केवल व्यवहारसे जीवकी सिद्धि है और न केवल निश्चयसे ही सिद्धि है परंतु जगत्में कोई तो निश्चय पर सर्वथा आरूढ़ हैं-धर्मकर्मको कुछ समझते ही नहीं, कोई व्यवहार पर ही डटे हुए हैंअसली तबके स्वरूप तक वे पहुँच ही नहीं पाते हैं; इसी एकांतपक्षको देखते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि जगत् प्रायः सत्यबोधसे शून्य हो मवहारनयको उपयोगिता अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयंत्यभूतार्थं । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति॥६॥ अन्वयार्थ - ( मुनीश्वराः ) आचार्य महाराज ( अबुधस्य ) अज्ञानी पुरुषोंको ( बोधनार्थ ) ज्ञान कराने के लिये ( अभूतार्य) व्यवहारनयका ( देशयंति ) उपदेश देते हैं, ( यः) जो ( केवलं ) केवल (व्यवहार एव) व्यवहारनयको ही ( अवैति ) जानता है (तस्य ) उसके लिये ( देशना ) उपदेश ( नास्ति ) नहीं है । विशेषार्थ - यह बात पहले कही जा चुकी है कि पदार्थ अभिन्न अखंडपिंडरूप है, अतएव वह शब्दसे अवाच्य है, ऐसी दशामें जड़ चेतन अथवा धर्म,अधर्म, आकाश आदि भिन्न भिन्न वस्तुओंका बोध करनेके लिये उनके गुणोंका लक्षण बनाकर उनमें भेद सिद्ध किया जाता है। एक एक गुणके - यह बात पहले कहा है, ऐसी दशाम म लये उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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