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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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हैं, और व्यवहार को केवल भ्रम समझते हैं । ऐसे ही लोग अपनी समझ के आधार पर वाह्यचारित्रको कुछ नहीं समझकर देवपूजन, संस्कारविधान, जातीय व्यवस्था, वर्णभेद, बाह्यशुद्धि आदि समस्त विषयोंको छोड़कर स्वयं तथा दूसरे पुरुषोंको भी धर्मकर्महीन बनाकर अकल्याण-भाजन बना डालते हैं । ऐसी समझ रखनेवाले आर्ष-मर्यादाके लोपक हैं, आर्ष-वचनोंके अश्रद्धानो एवं अवहेलक (तिरस्कार करनेवाले) हैं । ऐसी एकांत बुद्धिवालों पर विवेकियोंको खेद होता है । यदि व्यवहार सभी मिथ्या हैं-श्रावकाचार, यत्याचार, तपोविधान, हिंसा-अहिंसामय प्रवृत्ति आदि समस्त बातें व्यर्थ एवं भ्रमात्मक हैं, तो पुण्यपापका फलस्वरूप नरक-स्वर्गादि व्यवस्था, पापभीति, संसार से उद्वग, मोक्षप्रयत्न आदि सब बातें भी कुछ नहीं ठहरेंगी। वैसी अवस्थामें श्रावकाचार, और यत्याचारका सर्वज्ञ-प्रतिपादित विधान भी मूंठा एवं भ्रमात्मक ही मानना पड़ेगा। उसे मानकर फिर निश्चयनयावलम्बी किस सिद्धान्त पर आरूढ़ हो सकते हैं, सो वे ही जानें । जब कि संसारपूर्वक ही मोक्ष है और 'संसार' जीव की कर्मजनित अवस्था का नाम है, इसलिए कर्मजनित अवस्थाको भ्रम कहना भूल है यदि कर्मजनित जीवकी अवस्था भ्रम है तो फिर वेदान्तवाद भी ठीक मानना चाहिए, जो कि समस्त पदार्थों को भ्रम समझता है । अतः जीवकी संसार-पर्यायें वास्तविक हैं, उनको विषय करनेवाला अर्थात् जीव की अशुद्ध अवस्थाको विषय करनेवाला व्यवहास्नय भी वास्तविक है । इसीप्रकार शुद्ध पदार्थके गुण-पर्यायरूप भेद को विषय करनेवाला व्यवहारनय भी यथार्थ है; इतना विशेष है कि वही विषय निश्चयदृष्टि से मिथ्या है,
बम्बईकी छपी हुई मूलसहित हिन्दोटोकामें लिखा है कि-"अन्वयार्थों-आचार्य इन दोनों नयोंमेंसे [ इह ] इस ग्रन्थ में [ निश्चयं ] निश्चयनयको [ भूतार्थं ] भूतार्थ और [ व्यवहारं ] व्यवहारनयको [ अभूतार्थं ] अभूतार्थ [ वर्णयन्ति ] वर्णन करते हैं. [प्रायः ] बहुत करके [ भूतार्थबोधविमुखः ] भूतार्थ अर्थात् निश्चयनय के ज्ञान से विरुद्ध जो अभिप्राय हैं, वे [ सर्वोऽपि ] समस्त ही [ संसारः ] संसारम्वरूप है" उक्त आचार्यके अभिप्रायके समझनेवाले इस पर और भी विचारकरें।
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