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पुरुषार्थ सिद्धच पाय ]
मोह नही करते हैं । अतः दशमशकादि परीषद को शांति से सहन करते हैं ।
आक्रोश - यदि मुनिराज को कोई गाली देवे या उन्हें मारे पीठे या जान से भी मार डाले तो वे उस दुष्ट मनुष्य पर थोड़ा भी क्रोध नहीं करते हैं । वे समझ लेते हैं कि मेरे कर्मों का उदय ही ऐसा है । यह विचारा अज्ञानी है । इसका उदाहरण सामने है । आचार्य महावीरकीर्ति महाराज पर पुरलिया (विहार) में कई दुष्ट लोगों ने लाठियां मारीं परन्तु महाराज उपसर्ग समझ कर ध्यान में मौन से वैठ गये । दैवयोग से वहाँ पुलिस सुपरिन्टेडेन्ट कार से आरहा था । उसने अपने सिपाइयों से उन आतताइयों को पकड़वा लिया परन्तु आचार्य महाराज ने कहा कि इनका कसूर नहीं है यह मेरे कर्मों का फल है आप इन्हें छोड़ दो । उनके प्रभाव से उन्हें छोड़ना ही पड़ा ।
इसी प्रकार राजा खेड़ा ( धौलपुर ) में चरित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज और उनके संघ पर आतताइयों ने हमला किया था, नंगे साधुओं को मारो, यह कहते हुये वे लोग संघ के निकट पहुँच रहे थे, वहाँ के जैनियों ने छतों पर चढ़कर पत्थर ईटें उन पर फेंके वे भाग गये परन्तु सबों का मुखिया छिद्दा ब्राह्मण को मेरे लघु भ्राता चि० श्रीलाल जौहरी ( जयपुर ) छत से कूद कर अपने प्राणों की परवाह नहीं करके उसे पकड़ कर पुलिस को सौंप दिया । परम पूज्य आचार्य महाराज ने उसे छोड़ने को कहा, पुलिस सुपरिन्टेडेन्ट उसे छोड़ना नहीं चाहते थे महाराज ने कहा उसे छोड़ दो नहीं तो हम आहार नहीं लेंगे । हमारे कर्मों का ही फल यह उपसर्ग है । अंत में उसे छोड़ना ही पड़ा। मुनिराज कोई जान से भी मारे तो भी आक्रोध नहीं करते हैं । आक्रोश परीषद विजयी होते हैं ।
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व्याधि दुखः - कर्मोदय से मुनियों के शरीर में कोई भी व्याधि रोग हो
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