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________________ पुरुषार्थ सिद्धपाय ] [ ४१३ www जाय तो उसे वे समता भाव शांति से सहन करते हैं शरीर से ममत्व नहीं रखते हैं । अतः भयंकर व्याधि जन्य दुःख से दुखी नहीं होते हैं । सनत्कुमार चक्रवर्ती वैराग्य होने से मुनि बन गये किन्तु उन्हें सारे शरीर में कोढ़ हो गया। देव ने उनकी परीक्षा करने के लिये वैद्यराज बनकर उन मुनिराज से पूछा कि आपका रोग में दूर कर दूंगा आप इलाज कराइये । तब मुनिराज ने कहा कि आप मेरा भीतरी रोग जन्ममरण है उसे दूर कर सकते हो तो करो । तब देव ने अपना रूप बदल कर मुनिराज के चरणों में सिर रख कर उनकी भक्ति की और मोक्षगामी सच्चे साधु रत्न हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि मुनि व्याधि दुख को दुख नहीं मानते हैं कर्मोदय समझकर उन परीषहों को शान्ति से जीतते हैं। अंगमलः-मुनि स्नान नहीं करते हैं इसलिए उनके शरीर में पसीना और मल धूलि मिट्टी लग जाती है उसे वे दूर नहीं करते हैं। और न ग्लानि मानते हैं अतः अंममल परीषह विजयी हैं। स्पर्श तृष्णादिकोंका:-मार्ग में चलते हुए मुनियों के पैरों में कांटा लग जाय कांच या पत्थर का टुकड़ा लग जाय तो वे उन्हें निकालते नहीं हैं और न निकलवाते है । किन्तु शान्ति से उस कष्ट को सहन करते हैं अतः कंटकादि स्पर्श विजयी बन जाते हैं। अज्ञानः-वार २ समझाने और बताने पर भी यदि मुनिराज को ज्ञान नहीं हो पाता है तो वे उस अज्ञान से खेद नहीं करते हैं किंतु जब क्षयोपसम होगा तब ज्ञान हो जायेगा ऐसा मानकर स्वाध्याय में आनन्द मानते हैं । वर्तमान के मुनिगण चतुर्थ काल के और पंचम काल के मुनियों की चर्चा में उनके विशुद्ध भावों में स्थूल रूप से कोई भेद नहीं है जो २८ मूल गुण मुनियों में चतुर्थ काल में होते हैं वे ही २८ मूल गुण पंचम काल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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