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________________ [ ११ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ] mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm रहते हुए वे याचना की थोड़ी भी भावना नहीं करते हैं। केशों का उखाड़ना भी एक तप है । शरीर से ममत्व हटने पर ही केश उखाड़े जा सकते हैं थोड़ा भी शरीर से ममत्व हो तो केश उपाड़ने में भारी पीड़ा का अनुभव होने लगेगा । २माह ३माह ४माह में केशों का उपाड़ना भी आवश्यक है । यदि केश बढ़ने देवे तो दोष पैदा होंगे। एक तो यह कि उनके शरीर में जुआ (कीड़ा) पैदा हो जायेंगे। उनकी रक्षा करना भी अशक्य हैं। आहार के समय हाथ में भी वे मिर सकते हैं तव मुनिराज को अंतराय हो जायेगा । दूसरी बात यह है कि केश बढ़ने से श्रृंगार की वासना भी हो सकती है अतः केशों का उपाड़ना भी आवश्यक है । अतः याचना परीषह विजयी साधु कहे जाते हैं। अरति- आहार में किसी वस्तु से-चाहे तीखी हो कटु हो या अचि कर हो तो मुनिराज नीरस या अनुकूल कैसा भी आहार हो परन्तु शुद्ध हो तो वे उसे ग्रहण करने में किसी प्रकार की अरुचि नहीं करते हैं। या अन्य कोई बात अरुचि की हो तो भी कोई अरुचि या द्वष वे नहीं करते है अतः अरति परीषह विजयी कहे जाते हैं। अलाभ-अनेक उपवास करने पर भी यदि मुनियों को अंतराय रहित शुद्ध आहार की योगाई नहीं मिले तो भी वे विना आहार किये लौट कर समताभाव से सामायिक में लीन हो जाते हैं। वे आहार नहीं मिलने पर कर्मोदय समझकर बड़ी शांति से अलाभ परीषह को जीतने में समर्थ रहते हैं। दंश मशकादि-यदि मुनियों के शरीर को डांस मच्छर चींटा विच्छ सर्पआदि काट रहे हो तो वे उन्हें दूर नहीं करते और उनके काट लेने पर उसका कोई इलाज भी नहीं करते हैं। और मन में खेद भी नहीं करते हैं। उसका मूल हेतु यही है कि वे अपने शरीर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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