SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पुरुषार्थसिद्धयुपाय तीन गरमी पड़ती है तब गृहस्थ लोग विजली के पंखे चलाते हैं कूलर जमाते हैं जिससे ठंडी हवा आती है शिमला आदि ठंडे स्थानों में जाते हैं । परन्तु मुनिराज उस तीव्र गरमी में मध्यान्ह में चलते हैं । पैर झुलसते हैं वे शरीर से ममत्व नहीं करते हैं। इतना ही नहीं मध्यान्ह में पहाड़ पर भी ध्यान करते हैं इसलिये वे उष्ण परिषह विजयी कहलाते हैं । नग्नव-नग्न रहना लोक में लज्जा की बात कही जाती है । इसका कारण विकार है । काम वासना है । जब बालक ६७ वर्ष का होता है तो अपनी जनेन्द्रिय को लंगोटी धोती पजामा पहनकर ढक लेता है। किंतु ३२४ वर्ष का वालक नंगा घूमता है उसके मन में विकार या वासना नहीं है इसलिये जो संसारी मनुष्य विकारी हैं काम वासना के वशीभूत हैं वे नंगा रहने में लज्जा मानते हैं। मुनिराज सभी इंद्रियों और मन पर निर्विकारता का अंकुश लगाकर अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । उनके मनमें काम वासना का रंच मात्र भी विकार नहीं है । माता भगिनी पत्नी और पर की पत्नी सबों को एक निर्विकार रूप में ये मुनिराज देखते हैं । इसलिए जैसे छोटा बालक निर्विकार रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी विशुद्ध परिणामों से आत्म साधना में लीन रहते हैं। सच बात तो यह है कि निर्विकार नग्न साधु ही पूर्ण अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन करते हैं । और इन्द्रियों पर दमन करके अपने आत्म ब्रह्म का अनुभव करते हैं । इस प्रकार नग्न परीषह विजयी मुनि कहे जाते हैं। याचना- मुनिराज अंतरंग और बहिरंग १४ प्रकार का सभी परिग्रह का त्याग कर चुके हैं । तब वे किसी से किसी प्रकार की चाहना या मांग नहीं किया करते हैं । इसलिए वे अपने सिर दाढ़ी मूछ के केश भी बिना खेद किये अपने हाथों से उखाड़ देते हैं । यदि नाई से वाल कटवाना चाहें तो गृहस्थ से उन्हें याचना मांग करनी पड़ेगी कि नाई को बुलाओ पैसा दो, ऐसा करना मुनियों की स्वतंत्रता में वाधक है। फिर जंगल में वन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy