________________
४००]
[ पुरुषार्थसिद्धय
I
वायु है, जलभाग भी द्रवीभूत नहीं है किंतु घनात्मक है । घनोदधि, घनवात (केवलस्थूल वायुसमूह ) पर स्थिर है, घनवात, तनुवात ( सूक्ष्मवायु समूह ) पर स्थिर है. सूक्ष्मवायु आकाशप्रदेश पंक्तिपर स्थिर है । आकाश व्यापक है, वह स्वयं अपना आधार है स्वयं ही आधेय है, उसका दूसरा कोई आधार नहीं है । जो लोग पृथ्वी को किसी कच्छपकी पीठपर या सर्पके फणपर अथवा गौके सींगपर रक्खी हुई बतलाते हैं वे मिथ्यावादी भ्रांत पुरुष हैं, ऐसी काल्पनिक बातोंकी सिद्धि युक्ति प्रमाणसे नहीं हो सकती । लोकका आकार पुरुषाकार है, जब कमरपर दोनों हाथ रखकर पुरुष खड़ा होता है तब ठीक लोकके स्वरूपसे उसका आकार मिल जाता है । नीवे भाग में लोक वेत्रासन - मूढा के आकार हैं, बीच में - मध्यलोक थाली के आकार है, ऊपर लोक मृदंगके आकार है । जो लोग पृथ्वीको गोल कहते हैं और उसकी तुलना गेंद या नारंगीसे करते हैं वे भ्रमशील हैं, वैसीगोलाई सिद्ध नहीं हो सकती । जो लोग उसप्रकारकी गोलाई बतलाते हैं वे लोकका स्वरूप भी बहुत छोटा केवल आर्यक्षेत्रका एक हिस्सामात्र मानते हैं । कहां तो पांचसौ छव्वीस योजन छह कला प्रमाण भरतक्षेत्रका एक छोटासा अंश और कहां चौदह राजूप्रमाण लोक ? कितना अंतर है । क्या अंदाजसे लोकव्यवस्थाका स्वरूप बतानेवाले लोकके इतने विस्तृत स्वरूपका कर सकते हैं ? फिर उनका कहना कैसे ठीक समझा जा सकता है ? दूसरे पृथ्वीको गोल माननेसे नरक स्वर्गव्यवस्था एवं मोक्षव्यवस्था कुछ भी नहीं बन सकती । कारण नरक पृथ्वी के नीचे भागमें पृथ्वीपर ही हैं वे वर्तमान गोल दुनियांसे बाहर समझे जांयगे या भीतर ? दोनों तरहसे नहीं सिद्ध हो सकते, इसीप्रकार स्वर्ग और मोक्ष व्यवस्था भी नहीं बनती यदि इन्हें न माना जाय तो कर्म फलका भोक्ला पुरुष नहीं सिद्ध होता । इसके सिवा जो युक्तियां पृथ्वी की गोलाईमें पाश्चात्य ( अंग्रेजी ) विद्वानों द्वारा दी जाती हैं वे सब प्रत्यक्षबाधित हैं जैसे कहा जाता है कि पृथ्वी गोल नहीं हो तो समुद्र
प्रत्यक्ष
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org