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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ] ममत्वभाव दूर करने में समर्थ हो जाता है, इसीप्रकार यह समझता है कि संसारमें मेरा कोई भी शरण नहीं है, मरनेसे कोई देव, इंद्र या शक्तिविशेष मुझे बचानेमें समर्थ नहीं है, इंद्रादिक अपनी भी रक्षा नहीं कर सकते तो मुझे क्या बचायेंगे, तब आत्मा निर्भीक बनकर मरनेसे नहीं डरता है एवं आत्माको ही अजर अमर समझने लगता है। यद्यपि इसप्रकारकी समझ सम्यग्दृष्टिमात्रकी हो जाती है फिर भावनाओंके भानेसे यही प्रयोजन है कि उसप्रकारकी दृढ़ता एवं संसारसे उदासीन होनेकी प्रबलता हो उठती है, साथ ही वस्तुस्वरूपका यथार्थ परिज्ञान सदैव जागृत बना रहता है। एकस्व भावनामें आत्माकिसी दूसरेकी साथी नहीं समझता है, अपने आत्माको ही कमों के फलोंका भोका समझता है । अन्यत्वभावनामें वह अपने आत्मासे समस्त पदार्थों को भिन्न समझता है, यहांतक कि शरीरको भी अपनेसे जुदा समझता है फिर कुटुम्ब संपत्ति आदिकी तो बात क्या है ? अशीच भावना में शरीर से विरकि होती है, शरीरको वह मलमूत्रका घर समझता है, घृणास्थान समझता है उससे सरागभाव छोड़ने में समर्थ होता है। आस्त्रभावनामें कर्मों का स्वरूप एवं उसके प्रतिक्षण आनेका विचार कर उसे रोकनेका यत्न करता है । संसारभावनामें संसारसे उदासीन हो जाता है। चतुर्गतिके दुःखोंसे घबड़ाकर एवं उन्हें त्याज्य समझकर मोक्षप्राप्तिके उपाय में संलग्न हो जाता है । लोक भावनामें लोकका स्वरूप चितवन करता है, लोक चौदह राजू ऊंचा है, सात राजू मोटा, नीचे सात राजू चौडा, मध्यमें क्रमसे घटते घटते एक राजू चौड़ा ऊपर बढ़ते बढ़ते स्वर्गों के बीचमें पांच राजू चौड़ा और सिद्धशिलाके ऊपर लोकांतमें एक राजू चौड़ा है । वह लोक घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय इन तीन वलयोंसे वेष्टित है, प्रत्येक वलय बीस बीस हजार योजन तक मोटे हैं, परंतु सर्वत्र एकसी मोटाई नहीं है कहीं कहीं कमती कमती मोटाई भी है। अर्थात् समस्त __ लोकका आधार घनोदधिवलय है, यह घनोदधि जलभागमिश्रित बहुत स्थूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaimelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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