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________________ ३६६ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय स्नान करते नहीं हैं वे फिर वाह्यपवित्रता कैसे प्राप्त करते हैं ? इसका उत्तर यह है-सफाई और शुद्धिमें बहुत बड़ा अंतर है । मुनियोंका शरीर धूलि आदिसे धूसरित भले ही रहता है परंतु वह अशुद्ध नहीं रहता, अशुद्धि की संभावना किन्हीं अस्पृश्य-नहीं छूने योग्य पदार्थों के स्पर्शसे होती है, ऐसी संभावना और योग्यता व्यवहार कार्यमें फंसे हुए गृहस्थको ही हो सकती है । जिन्होंने सभीप्रकारकी गार्हस्थ्य वृत्तिका त्याग कर निर्जन जंगल में निवास किया है । और वस्त्रादि पदार्थों का संबंध छोड़ दिया है, उन मुनियोंको वैसी अशुद्धताकी योग्यता नहीं है । यदि किसी कारणवश गमनागमनसे किसी अशुद्ध पदार्थका उनसे संसर्ग हो भी जाता है तो वे अपने कमंडलुके जलसे मंत्रधारा द्वारा अपने शरीरको स्वल्प विंदुओंसे पवित्रकर लेते हैं । इसलिये अशुद्धिके संसर्गसे वेष्टित यह गृहस्थ ही दिन रात अशुद्ध बन सकता है, उसीके लिये स्नानादि शुद्धियोंकी आवश्यकता है, मुनियोंको नहीं । फिर भी आवश्यकता होनेपर मुनिमहाराज भी बाह्यशुद्धि करते हैं, इसप्रकार बाह्यशुद्धि और अंतरंगमें लोभकषायका त्याग करनेसे अभ्यंतर शुद्धि रखनेसे शौचधर्मका पालन किया जाता है । सत्यधर्म तो प्रसिद्ध ही है, उसका विशेष व्याख्यान करना अनावश्यक है । यथार्थ वस्तुका अप्रमाद परिणामोंसे प्रतिपादन करना सत्य है । उसका पालन हित मित एवं साधु वचनोंसे होता है । संसारमें सभी पदार्थ आत्मासे भिन्न हैं, आत्माका कुछ भी नहीं है, परपदार्थमात्र आत्मासे पर है इसलिये परिग्रहोंका छोड़ना निष्परिग्रह वृत्ति धारण करना आकिंचन्य धर्म कहा जाता है। इस धर्मके पालनमें निर्ममत्व परिणामोंके सम्हालकी पूर्ण आवश्यकता है । ब्रह्मचर्य धर्मका माहात्म्य अपरंपार है । उत्तम ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं कि जहांपर आत्मा वाह्य पदार्थों से उपयोग हटाकर केवल आस्मामें चरण करता है लबलीन होता है । उसको सिद्धि तभी हो सकती है जब कि आत्माहरप्रकारसे कामवासनाको रोकने में समर्थ होता है । कामवासनाको रोकनेके लिये स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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