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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ३९७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मात्रका त्याग एवं मन वचन कायसे विकारमात्रका त्याग होना परम आवश्यक है । जो काष्ठ मिट्टी आदिके चित्रोंसे विकार उत्पन्न हो सकता है वह भी ब्रह्मचर्यका विघातक है इसलिये जहांपर पूर्ण निर्विकार वृत्ति धारण की जाती है, वहीं ब्रह्मचर्य धर्मका परिपालन होता है। ऐसा सर्वदेशपूर्ण ब्रह्मचर्यधर्म मुनिगण पालन करते हैं । श्रावक भी इसे पाल सकता है। जो परस्त्री आदि अन्य समस्त काम विकारों के त्यागी हैं, केवल अपनी विवाहिता स्त्रीमात्रमें संतोषित वृत्ति रखते हैं वे भी एकदेश ब्रह्मचर्य व्रतके पालक हैं । ब्रह्मचर्य धर्म ही एक ऐसा धर्म है कि इसके पालन किये बिना किसीप्रकार कोई व्रतसंयम नहीं पाला जा सकता इसलिये इस धर्मका पालन करना सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वप्रथम आवश्यक है। दान देना त्यागधर्म है । मुनियों के पास दातव्य द्रव्य नहीं होनेसे उनके दान कैसे सिद्ध हो सकता है ? इसके उत्तरमें यह समझ लेना चाहिये कि वाह्य दातव्य पदार्थ भले ही उनके पास नहीं होते तो भी अंतरंगमें लोभपरिणामोंका परित्याग उनके हो चुका है, वे सर्वस्व ही परोपकारार्थ लगा चुके हैं एवं जो कुछ ज्ञान चारित्र धन-आत्मीय धन उनके पास है उसे भी वे परोपकारार्थ लगाने में सदा तैयार रहते हैं । इसलिये सबसे उत्तम त्यागी हो सकते हैं तो तपोधन मुनि ही हो सकते हैं । श्रीराजवार्तिककारने त्यागका अर्थ परिग्रहत्याग किया है और आकिंचन्यकर अर्थ ममका बुद्धिका त्याग बतलाया है । तपके वाहर भेद हैं जिनका निरूपण पहिले किया जा चुका है, जिसप्रकार अग्नि संचित ईंधनको जला देती है उसीप्रकार तप भी संचित पुण्य पाप रूप कर्म को जलाकर आत्माकोशृद्ध बनाता है अथवा देह और इंद्रियको तपानेमें सामर्थ जो है उसे तप कहते हैं । संयमके अनेक भेद हैं, व्रतोंका पालन करना समितियों का धारण करना, कषायोंका निग्रह करना, मन वचन काय को वशमें रखना, इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना, इत्यादि मार्गों का अनुसरण करनेसे संयम पाला जाता है । मुख्यतासे संयमकी प्रवृत्ति वहीं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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