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पुरुषार्थसिद्धयुपाय]
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दश धर्म धर्मः सेव्यः क्षांतिमदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यं । आकिंचन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥२०४॥
अन्वयार्थ - ( शांतिः ) क्षमा मृदुत्वं मार्दवभाव-कोमल परिणाम रखना [ऋजुता च] मायाचार का अभाव-सरल परिणाम शौचं] लोभकषायका त्याग-पवित्रता [ अथ सत्यं ] इसके अनंतर सत्य वचन बोलना [ आकिंचन्यं ] परिग्रहरहित वृत्ति रखना [ब्रह्म ] ब्रह्मचर्य धारण करना [ त्यागश्च ] दान देना [ तपश्च ] तप धारण करना [ संयमश्च ] संयम धारण करना [इति धर्मः सेव्यः ] इसप्रकार धर्म सेवन करने योग्य है।
विशेषार्थ-धर्म दशप्रकार है, क्रोधकषायको छोड़ना एवं शांत परिणाम रखना उत्तम क्षमाधर्म है, किसी सांसारिक वासनासे नहीं किंतु धर्मबुद्धिसे क्रोधको परित्याग करना चाहिये इसलिये उत्तम विशेषण दिया गया है । मान कषायका त्याग करना इसीका नाम मृदुता है। विना मानकषायके छोड़े परिणामोंमें कोमलता नहीं आ सकती इसलिये दान, पूजा, कुल, जाति, बल, विभूति, चारित्र, शरीर इन आठ प्रकारके धमंडोंको छोड़कर आत्माके परिणामोंको सरल बनाना चाहिये । इसीका नाम मार्दव धर्म है।। मायाकषायका त्याग करना आर्जव धर्म है । जबतक आत्मामें मायाचारका सद्भाव रहता है तबतक वह कभी सरल नहीं बनता किंतुहरप्रकारकी कुटिलता धारण करता है । उससे निरंतर पापसंचय करता है, इसलिये मायाचार को छोड़कर सरल वृत्तिसे रहना इसीका नाम आर्जव है। लोभकषाय का त्याग करना शौचधर्म है । पवित्रताका नाम ही शुचिता है । वह एक अभ्यंतरकी होती है और एक वाह्यमें । अभ्यंतर पवित्रता निर्लोभ परिणामों से आती है । जबतक आत्मा लुब्ध रहता है, तबतक वह मलिन रहता है, लोभके परित्याग किये बिना परिणामोंमें उज्ज्वलता नहीं आती है । इसलिये लोभकषायको छोड़ना अभ्यंतर पवित्रता है और स्नानादि शुद्धिसे शरीरको पवित्र बनाना बाह्यपवित्रता है । जहां दोनोंप्रकार की पवित्रताओंका पालन होता है वहीं शौच धर्म पलता है । शंका हो सकती है कि मुनिमहाराज तो
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