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पुरुषार्थसिद्धयुपाय I
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कि जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकूचारित्र, तप, यम, नियम, संयम, गुप्ति इनमें प्रशस्तरूप से गमन करै वह सामायिक है अर्थात् इन सब आत्मीय धर्मो को जो प्रशस्तरूपसे धारण करता है वह भावसामायिक संपन्न कहलाता है । सामायिक में उपयुक्त आत्मा यह विचारता है कि किसीने शुभ नाम अथवा अशुभ नामका प्रयोग किया तो आत्मा बचन के अगोचर है इसलिये मुझे उस शुभ अशुभ नाममें रागद्व ेष नहीं करना चाहिये । जो कुछ यह स्थापित पदार्थ है वह मैं नहीं हूं मुझे इसमें रागद्वेष क्यों करना चाहिये | जो सामायिक शास्त्रोंके जानकार आत्माके शरीर हैं अथवा उससे भिन्न हैं दोनों ही पर द्रव्य हैं मुझे उनमें रागद्वेष क्यों होना चाहिये । चाहे राजधानी हो, चाहे जंगल हो, दोनोंही परक्षेत्र हैं, मेरा क्षेत्र तो केवल आत्मा है इसलिये मेरा उनमें रागद्वेष करना सर्वथा विपरीत है कारण जो अनात्मदर्शी हैं वे ही अपना निवास ग्राम या आरण्य समझते हैं, परंतु आत्मदर्शी तो केवल निजात्मामें ही अपना निवास समझते हैं, ठंडी गरमी दिन रात ये सब पुद्गलके विकार हैं, मेरा इनसे स्पर्श भी नहीं. हो सकता क्योंकि मैं अमूर्त हूं इसलिये मुझे इस कालसे रति अरति नहीं करना चाहिये | मुझसे भिन्न सभी भाव वैभाविक हैं मैं तो केवल चित्चमत्कारचैतन्यस्वरूप आत्मा हू' इसलिये मुझे इन परभावजनित वैभाविक भावों में किसी प्रकार भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये इसलिये जीने में, मरनेमें, लाभमें अलाभ में, संयोगमें, वियोग में, बंधु में, शत्रुमें, सुखमें, दुखमें सभीमें साम्यभाव ही मुझे धारण करना चाहिये । ये सब कर्मकृत विकार हैं । इन सबसे मेरा वास्तव में कोई किसी प्रकारका संबंध नहीं है । इसप्रकार सामाfare स्वरूपका विचार करना चाहिये । स्तवनका स्वरूप यह हैं कि श्रीअर्हतकेली, धर्मप्रवर्तक, श्रीचतुर्विंशति भगवानका उनके गुणोंका कीर्तन करके स्तवन करना - स्तुति करना सो स्तव कहलाता । यह स्तवन भी दो प्रकार है १- व्यवहारस्तवन २ - निश्चयस्तवन । व्यवहारस्तवनके पांच भेद हैं
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