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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ३७६ अंतरंगतप कहते हैं । बाह्यतपमें बाह्य पदार्थ एवं शरीर प्रवृत्तिप्रधान पड़ती है इसलिए उसे बाह्यतप कहा गया है । दोनों प्रकारका तप आत्माको उसीप्रकार शुद्ध बनाता है जिसप्रकार कि अग्नि सुवर्णको तपाकर शुद्ध बना देती है । इसीलिये तपको मोक्षका-कर्मनिर्जराका प्रधान अंग कहा गया है। मुनिवृत्ति धारण करनेका उपदेश जिनपुंगवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणों । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्ति च निषेव्यमेतदपि ॥२०॥ __ अन्वयार्थ-[ जिनपुंगवप्रवचने ] जिनश्रेष्ठ श्रीअर्हतदेवके द्वारा प्रतिपादित शास्त्रों में [ मुनीश्वराणां ] मुनीश्चरोंका [ यत् आचरणं ] जो चारित्र [ उक्त ] कहा गया है [ एतत् अपि ] वह भी [ निजी पदवीं ] अपने पदस्थको [ सुनिरूप्य ] अच्छी तरह विचार करके [शक्तिं च सुनिरूप्य ] तथा अपनी सामर्थ्य को भी भलीभांति विचार करके [ निषेव्यं ] सेवन करने योग्य हैं। विशेषार्थ - यहांतक श्रावकोंका आचार निरूपण किया गया अब ग्रंथकार श्री अमृतचंद्रसूरिमहाराज कहते हैं कि जैनागममें जो मुनीश्वरों के आचरण बतलाये गये हैं उन्हें भी अपनी शक्ति एवं अपने पदस्थका लक्ष्य रखकर पालन करना चाहिये । अर्थात या तो सामर्थ्य परिपूर्ण हो तो मुनिपद ही अंगीकार करना चाहिये, यदि उतनी सामर्थ्य नहीं है तो मुनियों के लिये कहे गये आचारका एकदेश धारण करना चाहिये । अनेक पुरुष ऐसा कहते हुए सुने जाते हैं कि अमुक बात तो मुनियों के लिये है, अमुकवत तो उन्हीं के लिये है, श्रावकोंके लिये वे नहीं हैं । यह बात कहना कुछ अंशोंमें सत्यता रखता है और कुछ अंशोंमें मिथ्या भी है ।जो व्रत उच्चादर्श रूपसे, एवं मन बचन काय कृत कारित अनुमोदनासेत्रसस्थावरोंकी पूर्ण रक्षापूर्वक सर्वारंभ परिग्रहरहित मुनियों द्वारा पाले जा सकते हैं वे सारंभ सपरिग्रह गृहस्थसे कभी नहीं पाले जा सकते। ऐसी अवस्थामें उपयुक्त कथन ठीकहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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