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________________ [ ३०० पुरुषार्थसिद्धय पाय] षडावश्यक परंतु जो आचरण-त्रत समिति गुप्ति आदि महाव्रत रूपसे मुनियोंके लिये विहित है उसका एकदेश रूप भी श्रावक नहीं पाल सकता यह कथन मिथ्या है कारण महाव्रतकी अपेक्षा अणुव्रत रखता है । मुनियोंके आचार महाव न रूपसे हैं वे ही आचार श्रावकोंके लिये अणुव त-एकदेश रूपसे हैं। ऐसी अवस्थामें पंचवत,पंचसमिति,त्रिगुप्ति आदि समस्त चारित्रकी एकदेश रूपसे गृहस्थ पालन करनेका अधिकारी है इसलिये अपनी शक्ति एवं अपने पदस्थके अनुसार मुनियोंके व ताचरणको धारण करना चाहिये। इदमावश्यकपटक समतास्तवबदना प्रतिक्रमणं । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यं ॥२०१॥ अन्वयार्थ-[समतास्तवबंदनाप्रतिक्रमणां] समता, स्तवन, बंधना. प्रतिक्रमण, [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान. [वपुषो व्युत्सर्गश्च] कायोत्सर्ग [इति इदं आवश्यकपटकं] इसप्रकार ये छह आवयक [कर्तव्यं] करना चाहिये। विशेषार्थ-समता और सामायिक दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, अतएव यहांपरसमता पाठ है अन्यान्य ग्रंथों में भी सामायिक पाठ है। साम्यभाव रखनेका नाम समता या सामायिक है। साम्यभाव ६ प्रकारसे-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, क्षेत्र और काल इन छह भेदोंसे धारण किया जाता है। शुभ अशुभ नामोंको सुनकर रागद्वेष नहीं करना नाम सामायिक है । जिप्त किसी स्थापित पदार्थकी सुदरता अथवा विकृतरूपता देखकर रागद्वेष नहीं करना स्थापना सामायिक है । चाहे सुवर्ण हो, चाहे मिट्टी हो, इन दोनोंमें समदर्शीभाव रखना द्रव्यसामायिक है चाहे कोई सुदर बाग हो या कोई कांटोंसे भरी हुई ऊसर भूमि हो दोनोंमें समताभाव रखना क्षेत्रसमता है चाहे अधिक जाड़ा या गरमी हो या अनुकूल वायुसे सुहावनी वसंत ऋतु हो या अथवा दिन हो या रात्रि हो किसी एकपर राग या द्वेष नहीं करना किंतु दोनोंको समताभावसे अनुभवन करना कालसामायिक है । समस्त जीवों पर मैत्रीभाव धारण करना किसी से वरै विरोध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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