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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] पास शिक्षा लेनेवाले व्रती, रोगादिसे क्लिष्टशरीरी. वृद्ध मुनियोंका समूह, आचार्यों का शिष्यवर्ग, मुनि अर्जिका श्रावकलाविकाइन चारोंके संघ अनेक कालसे दीक्षित साधु और लोकपूजित सम्यग्दृष्टि पुरुष इन सबोंकी सेवा शुश्रुषा करना आवश्यकतानुसार हरप्रकारसे सहायता करना सो वैयावृत्त्य है । किसी व्रतमें दूषण आनेपर शास्त्रानुसार मार्गसे एवं आचार्यद्वारा दिये गये दण्डविधानसे पुनः व्रतको शुद्ध कर लेना इसीका नाम प्रायश्चित्त है । जिससमय आत्मा कषायकी तीव्र परतंत्रतावश किसी अनुपादेय मार्गका अनुसरण कर लेता है उससमय फिर उसी पूर्व आर्षमार्गपर नियोजित एवं दृढ़ करनेके लिये प्रायश्चित्त मूलसाधक है । बिना प्रायश्चित्तके आत्मा से होनेवाली भूलका मार्जन किसीप्रकार हो नहीं सकता। प्रायश्चित्त शास्त्रोंके ज्ञाता आचार्य एवं गृहस्थाचार्य शुद्ध एवं सरल परिणामोंसे केवल धर्मरक्षाकी बुद्धिसे दूषित व्यक्तिको प्रायश्चित्त देते हैं, लेनेवाला भी अपनी भून समझकर उसी दण्डको सुधारमार्ग समझकर सरल परिणामोंद्वारा ग्रहण करता है इसलिए दोष करनेवाला व्यक्ति फिरसे निजात्माको शुद्ध बनाकर समुन्नति प्राप्त कर लेता है । यह प्रायश्चित्त आलोचन प्रतिकमण आदि भेदोंसे ६ प्रकार है । कोई दोष होनेपर उसे गुरुके निकट जाकर निवेदन कर देना इसका नाम आलोचन प्रायश्चित्त है। गुरुकी आज्ञानुसार अपने किये हुए अपराधोंकी मीमांसा करना अर्थात् मेरे अपराध मिथ्या हो जांय इसप्रकार किये गए अपराधोंका जो पश्चात्ताप किया जाता है वह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है । कोई दोष आलोचनसे दूर होता है, कोई प्रतिक्र. मणसे दूर हो जाता है, परंतु कोई कोई प्रवल दोषआलोचन औरप्रतिक्रमण दोनोंसे दूर होता है, जो दोनोंसे दूर होता है उसेतदुभयप्रायश्चित्तकहते हैं। संसक्त अन्न पान एवं उपकरणोंका विभाग कर देना इसे विवेक नामक प्रायश्चित्त कहते हैं । शरीरसे ममत्व छोड़कर ध्यान करना वह कायोत्सर्ग है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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