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________________ ३७६ ] · पुरुषार्थसिद्धय पाय m NNNNNNNNA अंतरंगतपके भेद विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः । स्वाध्यायोथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोतरंगमिति ॥१६॥ अन्वयार्थ-( विनयः ) विनय करना ( वैयावृत्यं ) वैयावृत्य करना ( प्रायश्चिरं ) प्रायश्चित्त धारण करना ( तथैव उत्सर्गः ) उमीप्रकार कायोत्सर्ग करना ( स्वाध्यायः ) स्वाध्याय करना (अथ ध्यान) अथ ध्यान धारण करना (इति अंतरंग तपः निषेव्यं भवति ) इस प्रकार अंतरंग तप सेवन करने योग्य है । विशेषार्थ-विनय चारप्रकार है-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि के लिये स्वाध्याय करना, शास्त्रका विनय करना, ज्ञानका प्रचार करना, गुरुओंकी भक्ति करना, इत्यादि सब ज्ञानविनय कहा जाता है । सम्यग्दर्शनको शुद्ध रखनेकी चेष्टा करना उसे अतीचारोंसे दृषित नहीं होने देना निशंकितादि भावोंसे उसे दृढ़ बनाना, एवं सम्यम्हष्टियोंपर श्रद्धाभाव रखना यह सब दर्शनविनय है । सम्यक्चारित्रका पालन करना, दूसरोंसे व्रताचरण कराना, लोकमें चारित्रका महत्त्व प्रगट करना, एवं सम्यकचारित्रधारियोंकी भक्ति विनय करना चारित्रविनय है। आचार्य उपाध्याय साधु एवं सम्यग्दृष्टि गुणधारी पुरुषोंके आनेपर खड़े हो जाना उन्हें पहुंचाने जाना, हाथ जोड़कर विनयादि करना, जो परोक्ष है उनका प्रकरणवश नाम उपस्थित होनेपर उन्हें परोक्ष नमस्कारादि करना, हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना इत्यादि सब उपचारविनय है । जो शिक्षक लौकिक शिक्षा देते हैं उन्हें गुरु समझकर उनकी विनय करना, अंतरंग तपमें शामिल किया जाय या नहीं? इसके उत्तरमें यह समझना चाहिये कि तपमें तो उन्हींका विनय शामिल किया जा सका है जो सस्यग्दृष्टि हैं, जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं उनका विनय तो करना चाहिये परंतु वह लौकिक व्यवहारविनय है. धार्मिक बुद्धिसे भक्तिपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वैयावृत्य नाम धार्मिक पुरुषोंकी सेवाका है । आचार्य उपाध्याय, तपस्वियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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