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पुरुषाथसिद्धय पाय]
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है कि जहां-जिस जीवमें जितनी सामर्थ्य है अर्थात् जितना प्रमादरहित कषायरहित शारीरिकश्रम किया जा सकता है उतना किया जाय । जहां शारीरिक श्रम करते हुए कषायभाव जागृत नहीं होते हैं वहांपर कर्मबंध नहीं होता किंतु कर्मों की निर्जरा ही होती है। कर्मबंधके लिए कषायभाव कारण है जहांपर कषायभावोंका पूर्ण दमन किया जाता है वहाँ कर्मको निर्जरा अशक्य है । पर्वतपर, नदी किनारे, वृसके नीचे एवं नाना प्रतिमादियोगोंसे जो तप किया जाता है वह आत्मशुद्धिके लिये ही किया जाता है. शरीरसे ममत्वबुद्धि सर्वथा दूरकर दी जाती है, वैती अब स्थामें शारीरिक कष्टसे आत्मसंल्केशनहींहोता । यह बात अनुभूत है कि जहांपर शरीरमें ममत्व भाव नहीं रहता, वहां शरीर की पीड़ाकी ओर लक्ष्य ही नहीं होता, वहांपर शारीरिक वेदना वेदना ही नहीं विदित होती इसलिये कायक्लेश नहीं होता, बिना कायक्लेश किये आत्मशुद्धि और कर्मनिर्जरा अशक्य है अतः कायक्लेशको तप कहा गया है। यद्यपि कर्माकी निर्जरा तो प्रत्येक संसारीके होती रहती है परंतु उस निर्जरा से कोई लाभ नहीं है, वह सविपाकनिर्जर है अर्थात् कर्म अपना फल देकर समय पूराकर निर्जरित हो जाते हैं किंतु जो कर्म तप द्वारा खपाये जाते हैं, वे उदय-समयले पहले ही खपाये जाते हैं वैसी कर्मनिर्जराको अविपाकनिर्जरा कहते हैं, ऐसी कर्मनिर्जरा आत्माको कर्मभारसे हलका बनाती है। वृत्तिपरिसंख्या उस तपका नाम है जिसमें भोजनकी विशेष मर्यादा की जाती है -जैसे आज में दश घरसे अधिक नहीं घूमूगा, चाहे भोजन मिले या न मिले, आज अमुक पदार्थ मिलेगा तो लूगा नहीं तो नहीं लूगा, आज केवल मूगकी दाल ही लूगा और कुछ नहीं इत्यादि रूपसे जहांपर नियमित वृत्ति करली जाती है वहांपर विशेष रीतिसे संयम पलता है इसलिये वृत्तिपरिसंख्या तप है।
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