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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
वर्तमानमें जो त्याग किया जाता है उसमें हरित वस्तु भी रसमें ले ली जाती है हरित वस्तुका रसमें ग्रहण है यह बात अनगार धर्मामृतमें स्पष्टतासे बतलायी गई है जितने भी पदार्थ विशेष स्वादिष्ट होते हैं वे रसोंमें परिगणित किये जाते हैं । नमकको भी रसमें उक्त ग्रंथमें गिनाया गया है इसलिये जो रविवारको नमक छोड़ने और सोमवारको हरित छोड़ने की पद्धति है वह शास्त्रोक है । इंद्रियलालसा निवृत्तिके लक्ष्यसे नमकका त्याग भी लाभकारी है। अनेक आसन मांढकर तप करना, धूपमें-ग्रीष्मकालमें पर्वतपर चढ़कर तप करना, चातुर्मासमें वृक्षके नीचे तप करना, शीतकालमें नदीके किनारे तप करना इत्यादि रीतिसे जिसप्रकार हो सके शरीरको तप द्वारा क्लेशित करना कायक्लेश कहलाता है ।
यहांपर यह शंका उठाई जा सकती है कि कायक्लेशसे तो आत्मामें कषायभाव पैदा होगा वैसी अवस्थामें कर्मबंध ही होगा परंतु तपका फल कर्मों की निर्जरा बतलाया गया है, वह कायक्लेशसे सिद्ध नहीं होता प्रत्युतः विपरीतफल सिद्ध होता है फिर कायक्लेशको तपमें क्यों ग्रहण किया गया है ?
इसके उत्तरमें यह समझ लेना चाहिये कि यहां पर अप्रमत्त अधिकार चला आता है। उसका प्रयोजन यह है कि जहांपर कषायपूर्वक शरीरको पीड़ा पहुंचाई जाती है अथवा जहाँपर शारीरिक पीड़ासे आत्मा पीड़ित एवं क्षुब्ध होता है वहां तो कर्मबंध होता है वैसा शारीरिक क्लेश सर्वथा वर्जित किया गया है कारण कि शास्त्रकारोंने सर्वत्र अपनी शक्तिके अनुसार तप करनेका विधान किया है । अपनी शक्तिका प्रयोजन यही है कि जिसमें आत्माको शरीरपीड़ासे क्लेश न हो, अन्यथा आत्मा तो अचिंत्य एवं समानशक्निका धारी हैं उसके लिए नाना जीवों की अपेक्षा भिन्न भिन्न रूपसे सामर्थ्यका उपदेश व्यर्थ है, इसलिए उसका यही प्रयोजन
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