SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [३७३ mmmmmmmmmm खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय, इन चारोंप्रकारके आहारोंका सर्वथा परित्याग करदेना, अनशनतप है । अल्पाहार करना अर्थात् जितनी भूख है उससे एक ग्रास, दो ग्रास, तीन ग्रास आदि क्रमसे भोजनको घटाकर लेना, घटते घटते एक ग्रासमात्र लेना इसे अवमौदर्य कहते हैं, इसीका दूसरा नाम ऊनोदर है। यह इच्छानिरोधके लिये किया जाता है। लालसायें इस तपसे नष्ट हो जाती हैं । __ जो स्थान जीवोंकी बाधारहित हैं, एकांत हैं । ऐसे वसतिका खंडहर आदि स्थानों में शयन-आसन करना इसे विविक्तशय्यासन कहते हैं। रसोंका त्याग करना रसपरित्याग कहलाता है । रसोंके पांच भेद हैं दूध, दही, घी, खांड, तेल । इन पांचोंमेंसे कभी एक रसका परित्याग करना, कभी दोका त्याग करना, कभी तीनका, कभी चारका और कभी पाँचका । पांचका त्याग जहां किया जाता है वहां उत्कृष्टत्याग कहा जाता है। श्रीराजवार्तिककारने रसोंके भेद नहीं गिनाकर-घृतादिरसत्यजन' घृत दधि गुड़ तेल आदि रसोंको छोड़ना रसपरित्याग है, इतना ही बतलाया है साथ ही उन्होंने शंका भी उठायी है कि जितनी मात्र पौद्गलिक वस्तुएं हैं सभी रसवाली हैं, उन सबका नाम कहना चाहिये फिर विशेष क्यों कहा गया इसके उत्तरमें श्रीअकलंकदेवने कहा है कि विशेष रससे यहां प्रयोजन है जो रस इंद्रियोंको विशेष रोतिसे लालायित करनेवाला है उसीका परित्याग करना आवश्यक बतलाया गया है । तत्त्वार्थसारकार श्रीअमृतचंद्रसूरिने पांच रसोका नाम गिनाया है साथमें पांच संख्या भी घतलायी है-'तैलक्षीरेक्षुदधिसर्पिषां' तैल, क्षीर, इसु, दधि, और घो। नमकको यद्यपि रसोंमें नहीं गिनाया गया है तथापि श्रीराजवार्तिककारके अभिप्रायानुसार उसका ग्रहण भी रसमें किया जाय तो कोई बाधा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy