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________________ ३७२ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय सम्यग्दर्शन एवं व्रत शील सभी निर्दोष हो जाते हैं, वैसी अवस्थामें बूती पुरुष बहुत जल्दी अपने असली प्रयोजनको मोक्षलक्ष्मीको पा लेता है । तपो विधान चारित्रांतर्भावात् तपोपि मोक्षांगमागमे गदितम् । अनिगूहित निजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वांतैः ॥१६७॥ अन्वयार्थ – (चारित्रांतर्भावात् ) सम्यक्चारित्र में गर्भित होनेसे ( तप अपि ) तप भी ( आगमे मोक्षां गंगदितं । आगममें मोक्षका अंग कहा गया है । इसलिये ( तदपि ) वह तप भी ( अनिगूहितनिजवीर्यैः ) अपनी शक्तिको नहीं छिपानेवाले ( समाहितस्वतिः > और अपने मनको वशमें रखनेवाले पुरुष के द्वारा (निषेव्यं ) सेवन करना चाहिये । ) विशेषार्थ - तपका धारणकरना मोक्ष प्राप्तिके लिये प्रधान है बिना तपके धारण किये कमोंकी निर्जरा अशक्य है, इसलिये अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर एवं मनको वशमें रखकर मोक्षप्राप्तिके अभिलाषी पुरुषोंको तप अवश्य धारण करना चाहिये । तपका उल्लेख स्वतंत्र इसलिये नहीं किया गया है कि वह सम्यक्चारित्र में अंर्तभूत-गर्भित हो जाता है । तपके भेद अनशनमवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेव्यमिति तपोबाह्यं ॥ १६८ ॥ अन्वयार्थ - ( अनशनं ) चार प्रकारके भोजनका परित्याग कर देना. ( अवमौदर्य ) उनोदर रहना अर्थात् थोडासा आहार लेना, मरपेट नहीं खांना ( विविक्तशय्यासनं ) एकांत में सोना बैठना ( रसत्यागः ) रसोंका त्याग करना ( कायक्लेशः ) शरीरको क्लेरा देना [ वृते:संख्या च ] तथा आहारकी नियति करना [ इति वाह्य तपः निषेव्यं ] इसप्रकार यह छह प्रकारका वाह्यतप सेवन करना चाहिये । विशेषार्थ- जो कर्मों के क्षय करनेके लिये तपा जाय उसे तप कहते हैं, उसके दो भेद हैं एक वाह्य तप, दूसरा अंतरंगतप । वाह्यतपके छह भेद हैं- अनशन, अवमौदर्य, विविक्रशय्यासन, रसपरित्याग, कायक्लेश और वृत्तिपरिसंख्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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