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[ पुरुषार्थसिद्ध थुपाय
आत्माकी वह नहीं समझता है इसीलिये मुनियोंको अनेक शारीरिक कष्ट होते हैं परंतु वे उनके ऊपर लक्ष्य तक नहीं देते अतएव उपसर्गों के होते. हुए भी व आत्मव्यानले विचलित नहीं होते हैं । इससे भलीभांति सिद्ध हैं कि जहां ममत्व बुद्धि है वहींपर शारीरिक वेदनासे जल्दी मरनेकी इच्छा उत्पन्न होती है इसलिये यह सल्लेखनाधारीका दूसरा अतीचार है।
तीसरा मित्रानुराग नामा अतीचार है। ममत्व छोड़नेके लिये तो उद्यत हो रहा है परंतु मनमें अपने पुरातन एवं नवीन मित्रोंकी याद कर रहा है कि ये सब अब मुझसे छूटे जाते हैं । यह भी ममत्वबुद्धि के संस्कार हैं।
चौथा सुखानुबंध नामा अतीचार है, मरते हुए भी पहले भोगोंकी याद करना कि हमने पहले इसी पर्यायमें अच्छे अच्छे भोग भोगे हैं अब नहीं मालूम कैसी अवस्था प्राप्त होगी। इसप्रकार पूर्व सुखोंकी याद करना भी अतीचार है यह भी भोगोंसे ममत्व सिद्ध करता है । ___ पांचवां निदानबंध है । सल्लेखना धारण करके उसका फल स्वर्ग या भोगभूमि आदिके सुख चाहना यह निदानबंध बहुत बुरा भाव है । इसमें सिवा आत्मप्रतारणके और कुछ नहीं है । क्योंकि यह निश्चित है कि निदानबंध पुण्यके भीतर ही फल दे सकता है, यदि पुण्य कम हो और निदान अधिक फलवाला बांधा जाय तब तो वह निरर्थक जायेगा उस फल को दे नहीं सकता, यदि पुण्य अधिक है और निदान नीचे दर्जेका बांधा जाय तो वह फलीभूत हो सकेगा, ऐसी अवस्थामें कमाए हुए पुण्यसे पूरा फल नहीं लिया जा सकता। दूसरे सांसारिक भावों की आकांक्षा करना यह कषायजनित वासना है; मरते समय कषायवासनाको रखना आत्माके अहितका मार्ग है इसलिये निदानबंध बहुत निकृष्ट परिणाम है। संसारके बढ़ानेवाला एवं तीन राग उत्पन्न करनेवाला भाव है, इसलिये इसे शल्य बतलाया गया है। जिसप्रकार किसीप्रकारकी शल्य हृदय में
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