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[ पुरुषार्थसिद्धयपाय
चुभा करती है, उसीप्रकार यह शल्य भी आत्मामें चुभा करती है । निदान बंध पांचवें गुणस्थान तक ही होता है, छठे गुणस्थानमें नहीं होता, कारण छठे गुणस्थान में केवल संज्वलन कषाय है, वहांपर इसप्रकारके दुर्भाव नहीं उत्पन्न होते । मुनिमहाराज कभी निदान नहीं बांधते, व्रती श्रावकोंमें भी कभी कोई बांधते हैं क्योंकि यह जघन्य भाव है। ___'निःशल्यो व्रती' यह तत्त्वार्थसूत्रका सूत्र है, इसका अर्थ है कि जो शल्यरहित होता है वही व्रती होता है, शल्यसहित व्रती नहीं हो सकता, परंतु श्रीतत्त्वार्थसूत्रमें 'तदविरतदेशविरतयोः' यह भी सूत्र है, इसका अभिप्राय यह है कि वह निदानबंध अविरत और देशविरत-पांचवें गुणस्थानतक होता है । तब यहांपर यह शंका होती है कि जब शल्यसहितके व्रत ही नहीं होता तब निदान शल्य पांचवें गुणस्थानतक कैसे रह सकती है ? क्योंकि पूर्व सूत्र के अनुसार जहां शल्य होगी वहां व्रत नहीं और जहां व्रत है वहां शल्य नहीं हो सकती? इसका समाधान यह है कि यह कथन निरतीचार व्रतकी अपेक्षासे है अर्थात् निरतिचारव्रत तभी पाला जा सकता है जब कि वह शल्यरहित होगा ।
इसप्रकार पांच अणुव्रतोंके पांच पांच अतीचार, तीन गुणवतोंके पांच पांच अतीचार, चार शिक्षाबूतोंके पांच पांच अतीचार और सल्लेखनाके पांच अतीचार तथा सम्यग्दर्शनके पांच अतीचार कुल ७० सत्तर होते हैं, इनको बचाकर व्रतोंकी रक्षा करना श्रावकका प्रथम कर्तव्य है।
यहांपर यह शंका हो सकती है कि सल्लेखना किसी व्रतमें गर्भित है? या स्वतंत्र वृतभाव है, यदि व्रतमें गर्मित है तब तो उसके स्वतंत्र अतीचार बतलानेकी आवश्यकता नहीं थी जिस व्रतमें इसका समावेश हो सकता है उसीके अतीचार गिनानेसे इसके भी अतीचार समझे जाते, यदि, स्व. तंत्र व्रत इसे माना जाय तो फिर श्रावकके १२ वत ही क्यों बतलाये हैं
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