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रूषार्थसिद्धय पाय ।
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स्वामी समंतभद्राचार्य ने इस अतिथिसंविभागवतके अतीचार सचित्त निक्षेप, सचित्तपिधान और मात्सर्य ये तीन तो समान ही बतलाये हैं परंतु कालातिकमके स्थानमें विस्मरण और परव्यपदेशके स्थानमें अनादर कहा है । परन्तु यह कोई मतभेद की बात नहीं है दोनोंका अभिप्राय समान ही है केवल शब्दभेद है । कालातिकम कालका उल्लंघन और विस्मरण ये दोनों समान दोष हैं, अथवा कारण कार्यकी अपेक्षा कथन है, विस्मरण होने से ही कालका अतिकम होता है इसलिये विस्मरण कारण और कालका अतिक्रम कार्य है । स्वामी समंतभद्राचार्य ने कारणकी अपेक्षा लिखा है और श्रीअमृतचन्द्रसूरिने कार्यकी अपेक्षा लिखा है । एक जगह कारणमें कार्यका उपचार है दूसरी जगह कार्यमें कारणका उपचार है।
ऊपर हमने कालातिक्रमका अर्थ उपेक्षा किया है कि अन्य कार्य में व्यग्रता रहनेने भोजनकाल में पडगाहनके लिए खड़ा नहीं होना, विस्मरण में भी उपेक्षाभाव होता है यदि पूर्ण ध्यान हो तो विस्मरण नहीं होगा, विस्मरण वहीं होगा जहां उस कार्य में पूर्ण उत्साह और आकांक्षा भाव नहीं है इसलिये विस्मरणका भी उपेक्षा अर्थ होता है । यदि विस्मरणका भूल जानामात्र ही अर्थ किया जाय तो कालातिकमका अर्थ भी वही कर लेना चाहिये । दोनों ही अर्थ इस दोषमें आते हैं।
परदातृव्यपदेश और अनादर ये दोनों भी समानार्थक हैं। कारण दूसरे दाताको तभी प्रेरित किया जाता है जब कि स्वयं उसका विशेष अनुराग नहीं है, स्वयं अनुरागके रहनेपर दूसरेको न कहकर स्वयं ही दाता अपने हाथसे आहार देगा. इसलिए परदातृव्यपदेश वहीं होता है जहां दाताका दान देनेमें अनादरभाव है, यहांपर भी कार्य कारण भावकी अपेक्षा कथन है । अनादरभाव कारण है, परदातृव्यपदेश कार्य है, कारण की अपेक्षासे दोनोंका ही समान अर्थ है।
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