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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
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निकलते हैं वह समय करीब तीन-चार बजेका होता है । यदि साधु भोजन के लिये निकलेंगे तो इन्हीं दो समयों में निकलेंगे अन्य समयों में नहीं. कारण अन्य समय उनके सामायिक स्वाध्यायके लिये नियत है उस समय में सिवा उन कार्यों के और कुछ नहीं करते भोजन के समय दाताको प्रतिग्रहण-पडगाहन करनेके लिये साधुओं की प्रतीक्षा करना आवश्यक है जब कोई घर पर पाहुना आता है उसकी बाट जोही जाती हैं तो वे तो परमपूज्य बड़े भाग्योंसे दर्शनीय तपस्वी हैं, उनकी प्रतीक्षा करना-बाटजोहना अत्यावश्यक है, परंतु नियतकालमें तो इधर उधर निजी कार्यमें लग गए जब उनके भोजनका समय निकल गया तब उनके पदगाहन के लिये आ खड़े हुए फिर साधुओं का मिलना ही अलभ्य है । इसे कालातिक्रम नामका दोष कहा जाता है । यह भी कालातिक्रम है कि साधुओंको घर तो ले आये और उन्हें आसन पर बिठा दिया परंतु वीच बीचमें स्वयं दूसरे कार्यमें लग गये उन्हें आहारदान देनेमें विलंब कर लिया, ऐसी अवस्था में साधु भी नहीं ठहर सकते और उक्त दोषसे दाता दोषी बन चुका ।
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पांचवां अतीचार मत्सर - ईर्ष्याभाव है । यदि पड़ोसमें दूसरे के यहां दान दिया जाता हो या साधु दूसरेके यहां चले जांय अपने यहां नहीं आए तो उस दातासे ईर्ष्या धारण करना कि हास यह दान दिये देता है मैं यों ही रहा जाता हू । होना तो यह चाहिये कि यदि दूसरे के यहां महाराज पधारे हैं तो उसीकी सराहना करना चाहिये कि तू धन्य है कि तेरे यहां परम तपस्वी पधारे हैं, परंतु वैसा न कर उससे द्वेष करना, उसके घर उनके आनेको नहीं सहन करना अथवा अनादरके साथ आहार देना मात्सर्य नामका अतीचार है । ये सब दोष भक्तिमें कमी एवं प्रमाद उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिए अतिथिसंविभागत्रत धारण करनेवाले गृहस्थको इनसे बचनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
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