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पुरुषार्थसि व्य पाय ।
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हिंसाके दूर करने के लिये मधु और मांसको एवं प्रमादको भी दूर करनेके लिये मदिराको भी छोड़ देना चाहिये । इस शंकाका परिहार उन पुरुषोंकेलिये अति सुगम है जो ग्रन्थों के पूर्वापर रहस्यको समझकर सदृश दो कथनोंका पूर्वापर विरोध अपेमासे हटाने में सिद्ध हस्त हैं, जिन्हें पदार्थरहस्य नहीं समझनेसे अपेक्षाकृत विरोध हटानेकी सामर्थ्य नहीं है वे पुरुष इसप्रकार के कथनोंका अपने बुद्धिबलसे विपरीत अर्थ कर अनर्थ भी कर डालते हैं परंतु इसप्रकारका विवेचन जिनमतकी शैलीसे बाहर है। जहां सभी पदार्थों का विवेचन सापेक्ष है वह अपेक्षाका ध्यान रखना चाहिये।
उपयुक्त शंकावालों को विचार करना चाहिये कि श्रीरत्नकरंडश्रावकाचारमें ही जहांपर अष्टमूलगुणोंका विवेचन किया गया है वहींपर मद्य मांस मधुका त्याग बतलाया गया है, जैसा कि “मद्यमांसमधुत्यागैः सहणु
तपंचकं । अष्टौ मूलगुणानाहगृहिणां श्रमणोत्तमाः।" इस श्लोकसे सिद्ध है । जब स्वामीसमंतभद्राचार्य अष्टमूल गुणोंमें मांसादिकका त्याग बतला चुके तब भोगोपभोगपरिमाणव्रत-उत्तरगुणोंमें उसका उन्होंने पुनः त्याग क्यों कराया ? इसका अभिप्राय अवश्य जुदा जुदा है अन्यथा दो स्थानोंके विधानोंमें पूर्वापरविरोध एवं पदस्थके त्यागकी अमर्यादा, दोनोंका प्रसंग आता है । इसलिये जिप्सप्रकार रात्रिभोजनका त्याग पाक्षिकअवस्था में ही हो जाता है और दूसरी प्रतिमामें अतीचारोंका भी त्याग हो जाता है, फिर छठीप्रतिमामें जाकर रात्रिभोजनका त्याग कराया गया है, वह कृत कारित अनुमोदन मन वचन काय इन नवों भंगोंसे-सर्वथा कराया गया है, यह अपेक्षा वहां नियत है उसीप्रकार अष्टमूल गुणोंमें मासादि का त्याग कराया है, भोगोपभोगपरिमाणत्रतमें उसके अतीचारोंका भी परिहार कराया गया है जैसे-मांसमदिराका त्यागी यदि कोई आसव-अवलेह आदि औषधि रसोंका ग्रहण करे तो वह उसके लिये मांसमदिरा त्यागका अतीचार कहा जायेगा कारण आसवादि पदार्थ जो चिरकालसे रक्खे
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