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{ पुरुषार्थसिद्धय पाय
आदि नहीं है इसका आगम भी निषेध करता है और ये पदार्थ प्रत्यक्ष भी मांस रुधिरादिसे रहित दीखते हैं, इसलिये जीवशरीरकी व्याप्ति मांसादि के साथ नहीं बनती। जीवशरीर हेतु सपक्षविपक्ष (मांसादिसहित- पशुपक्षी मनुष्पादिका शरीर सपक्ष और मांसादिरहित देवनारकियोंका शरीर विपक्ष ) दोनों में रहने के कारण अनैकांतिक हो जाता है । जैसे कि जीवशरीर हेतु संहननकी सिद्धिमें अनैकांतिक हो जाता है, वहां भी सपक्षविपक्ष दोनों में रहता है इसलिये जिसप्रकार अनैकांतिक जीवशरीर हेतु से संहननकी सिद्धि नहीं होती उसीप्रकार उससे मांस रुधिरादिकी सिद्धि भी नहीं होती । यह नियम भी नहीं बनता कि समान होनेपर सभी प्रकार की समानता होनी चाहिये, किसीमें किसी अंशमें समानता रहती है किसी अंश में असमानता रहती है जैसे माता और स्त्री, दोनोंमें स्त्रीत्वस्त्रीपना है परंतु भोगने योग्य स्त्री ही होती है माता नहीं होती । उसीप्रकार प्राणीका अंगपना दोनों जगह समान होनेपर भी वनस्पति ही भक्ष्य है मांस नहीं । इसलिये इस कथनसे उस शंकाका परिहार हो जाता है कि सवित्त सेवनविधि में स्थावरका हो क्यों ग्रहण होता है सका क्यों नहीं, कारण किसका शरीर तो मांसस्वरूप है और मांसका श्रावकमात्र त्यागी होता है, मांसका त्याग अष्टमूल गुणों में पाक्षिक - जैनमात्रके अवश्य हो जाता है परंतु सचित्तग्रहण पांचवीं प्रतिमासे पहले पहले हो सकता है इसलिये सचितसे एकेंद्रिय जीवसहित पृथ्वी आदि स्थावरोंका ही ग्रहण होता है, त्रसका नहीं । यह सयुक्तिक सिद्ध हो चुका ।
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यहां पर भी शंका उठायी जा सकती है कि जब पाक्षिकश्रावक भी मांसादिक अभयका त्यागी होता है, तो फिर भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें स्वामी संमतभद्राचार्य ने मांसादिको क्यों छुड़वाया है जैसा कि श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है - " सहतिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ||४|| अर्थात् सहिंसा
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