________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय |
निरूपण नहीं, अन्य किसी संबंधसे है, वहां सचित्तसे त्रस स्थावर दोनों प्रकारके जीवोंसे प्रयोजन होता है; जैसे योनियों के भेदों में सचित्त अचित भी है, वहांपर सचित्त शब्दसे त्रस स्थावर दोनों प्रकारके जीवोंका ग्रहण होता है ।
[ ३५६
'सेवन के प्रकरण में सचित्तसे स्थावरका ही ग्रहण क्यों है सका क्यों नहीं ?" इसका उत्तर यह है कि सेवनवस्तु विधान में सका ग्रहण होता ही नहीं है, क्योंकि अष्टमूलगुण बिना धारण किये कोई जैन संज्ञा ही नहीं पाता, अष्टमूलगुणमें मदिरा मांस मधु आदिका परित्याग हो ही जाता है । और द्वींद्रियजीवसे पंचेंद्रियजीवों तकका शरीर ही मांसकी श्र ेणी में आता है, इसका भी हेतु यह है कि संहननकर्मके उदयसे ही हड्डी रुधिर वीर्य मज्जा मेघा आदि धातुएं शरीरमें बनती हैं एकेंद्रियजीवके संहननमें नामकर्मका उदय न होनेसे कुछ धातुएं नहीं बनतीं तथा धातुओं सहित शरीरको ही मांससंज्ञा प्राप्त है, एकेंद्रिय शरीर, पानी पृथ्वी अग्नि वायु और वनस्पतिको छोड़कर और कुछ नहीं है इसलिये उनमें हड्डी रुधिरादि सबका अभाव होने से मांससंज्ञा भी नहीं है । यदि कोई यह शंका करे कि जो जीव शरीर होता है वह सब मांसयुक्त होता है, तथा जिसप्रकार वनस्पति जल आदि ग्रहण करने योग्य हैं उसीप्रकार मांस भी ग्रहण करने योग्य पदार्थ है क्योंकि प्राणियों के अंग दोनों ही हैं, इन दोनों शंकाओं का प्रतिवाद इस हेतुसे हो जाता है कि जो जो जीव शरीर होता है वह सभी यदि मांस माना जाय तो कहना होगा कि जो जो जीवशरीर होता है वह सभी संहननसहित होता है परंतु एकेंद्रिय और देवनारकी इनके जीवशरीर रहनेपर भी संहनन नहीं होता, यदि संहनन होता तो जिसप्रकार पशु-पक्षी मनुष्यादिके हड्डी रुधिर आदि पाये जाते हैं उसीप्रकार देवनारकी एवं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतियोंमें भी पाये जाने चाहिये । परंतु देवनारकियोंके वे नहीं हैं इसका आगम निषेध करता है, पृथ्वी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org