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पुरुषार्थ सिद्धय पाय
तो एक प्रकारसे संबंध छूट ही जाता है । इसलिए सर्वत्र उपयोगी होनेसे भोग्यके ही अतीचार गिनाये । यदि यह कहा जाय कि 'वहां तो सर्वथा सचित्त का त्यागी हो चुका है, वहांपर भोगोपभोगपरिमाणबूत संबंधी भोग्य अतीचार सुतरां नहीं लग सकते। कारण पंचमप्रतिमामें सदा के लिये सक्तिका त्याग हो जाता है।' इसके उत्तरमें यह समझना चाहिये कि वहां सचित्तत्यागप्रतिमाकी अपेक्षा सचित्तका सर्वथा त्याग होनेपर भी दूसरे प्रकारसे आहार्य पदार्थों में भोगोपभोगपरिमाणवतकी विशेषतासे पालन होता ही है। वहां पर अचित्त पदार्थों की भी सामायिक मर्यादा उक्त व्रतके कारण रखता है, वैसी अवस्था में दूसरी तरहसे अतीचार - दोष आयेंगे | उससमय यह कहना होगा कि ये सभी अतीचार उपलक्षण हैं, इसलिए भोग्य के कहने से इतर भोग्य संबंधी भी समझने चाहिये और आठवीं प्रतिमाके पहले पहले उपभोग्यके भी समझ लेने चाहिये । इस बातकी पुष्टि स्वामी समंतभद्राचार्य के कथनसे होती है, उन्होंने श्री रत्नकरंड श्रावकाचार में पचेद्रियसंबंधी बातोंको ही इस व्रत के अतीचारोंमें लिया है, वे चाहे भोग्यसंबंधी हों या उपभोग्य संबंधी हों। दोनोंके ही अतीचार उनमें आ जाते हैं ।
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सचित्तके कहने से यद्यपि जीवसहित पदार्थ त्रस भी समझा जा सकता है, क्योंकि त्रसका शरीर भी तो जीवसहित होता है; परंतु नहीं, यहांपर सोंका ग्रहण सचित्तसे नहीं लिया जा सकता, इसके दो हेतु हैं, एक तो यह है कि इस व्रतवाला त्रसहिंसाका पहले ही त्याग कर चुकता
- संकल्पित हिंसाको अहिंसा में ही परित्याग कर देता है । इसलिये यहांपर सचित्तसे केवल एकेंद्रिय का ग्रहण लिया जाता है । इसके सिवा सचित्त शब्दका उपयोग एकेंद्रियके लिये ही नियत है। जहां कहीं भी सचित्तका विवेचन होगा वहां एकेंद्रिय से प्रयोजन होगा । इसलिये चित्त नाम यहां पर सिद्धांत विवक्षासे एकेंद्रियमें नियत है । परंतु इतना विशेष है कि यह सिद्धांत-विवेचन सेवनकी अपेक्षा से ही है । जहां सेवनका
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