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धर्मका प्रसार करनेवाले कौन हो सकते हैं ? मुख्योपचारविवरण निरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयंते जगति तीर्थं ॥४॥ अन्वयार्थ-( व्यवहारनिश्चयज्ञाः ). व्यवहारनय और निश्चयनयको जाननेवाले ( मुख्योपचारविवरण निरस्तदुस्तर विनेयदुर्बोधाः ) मुख्य और गौण कथनकी विवक्षासे शिष्योंके गहरे मिथ्याज्ञानको दूर करनेवाले 'महापुरुष' (जगति ) संसारमें ( तीर्थ) धर्मको ( प्रवर्तयंते) फैलाते हैं।
विशेषार्थ-जैनधर्मका जितना.भी उपदेश है वह नयके आधीन है; नयोंके अनेक भेद हैं, जितने वस्तुके धर्मभेद हैं उतने ही नयभेद हैं । वस्तुके धर्मभेद स्वपर-निमित्तसे अनन्त हैं इसलिये नयभेद भी अनंत हैं । मूलमें नयोंके दो भेद हैं-(१) निश्चयनय और (२) व्यवहारनय । जो परपदार्थ की कुछ भी अपेक्षा न करके केवल निज-गुणोंका अभेदरूपसे विवेचन करता हो, उसे निश्चयनय कहते हैं, और जो परद्रव्यके सम्बन्धसे वस्तुस्वरूपका विवेचन करता हो, उसे व्यवहारनय कहते हैं । यह स्थूल कथन है, सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर जो निश्चयनयका ऊपर स्वरूप बतलाया गया है, वह भी व्यवहार ही है। वास्तवमें निश्चयनय उसे कहते हैं कि जो-कुछ पदार्थके स्वरूपका भेदरूप कथन है , उसका निषेध करते जाना । अर्थात् निषेधात्मक निश्चयनय है । जैसे यह कहना कि जीवका ज्ञानगुण है, सम्यक्त्वगुण है, चारित्रगुण है । यद्यपि ज्ञान सम्यक्त्व चारित्र आदि सभी जीवके निज-गुण हैं, इसलिये उन गुणोंका जीवके बतलाना यह निश्चयनयका विषय पड़ जाता है; परन्तु यह बहुत ही स्थूलदृष्टि है। वास्तवमें विचार किग जाय तो ज्ञान सम्यक्त्व चारित्र आदि गुण जीवसे भिन्नपदार्थ कुछ भी नहीं है; जो जीव है, वही ज्ञानसम्यक्त्व-चारित्र है; जो ज्ञान-सम्यक्त्व-चाग्नि है, वही जीव है जब कि दोनोंमें भेद ही नहीं है। दोनोंका तादात्म्यभाव है। अथवा दोनों एक
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