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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[१७ maraanananananananananananananananananananananananananananananananas अकलंकदेव, जिनसेन, विद्यानन्दि, पूज्यपाद, गुणभद्र, नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती, वीरनंदि आदि जितने भी आचार्य होते आये हैं, उन सबोंके रचे हुए शास्त्रोंमें द्रव्यस्वरूप, व्रतस्वरूप आदि समस्त पदार्थों की रचना एक ही पाई जाती है । इसका कारण यही है कि प्रत्येक आचार्यने ग्रन्थ प्रारम्भ में अपनी स्वतन्त्रताका परिहार और पूर्वाचार्यों की प्रमाणता स्वीकार की है। आचार्योंके सिवा जिन पण्डितोंने ग्रन्थोंकी रचना की है; वह भी आर्षवचनोंके अविरुद्ध ही की है; अपने ग्रन्थोंकी प्रमाणताके लिए उन्होंने आचार्यों के वचनोंको ही प्रमाणभूत ठहराया है, यह बात सूरि कल्पपंडितप्रवर आशाधरजी, पं०टोडरमलजी आदिकी रचनासे सर्वविदित है । इसी सारपूर्ण आशयको लेकर आचार्यवर्य ग्रन्थकार महाराजने जैन-आगम की अनुकूलता प्रगट करके, उनके प्रति श्रद्धाका भाव द्योतित किया है । तथा जैनागमकी प्रमाणताको ही स्वनिर्मित ग्रन्थमें प्रमाणता कारण बतलाया है। ___ 'पुरुषार्थसिद्धथुपाय शास्त्रमें प्रधानतासे श्रावकाचार का वर्णन है, यद्यपि
अनेक श्रावकाचार हैं, परंतु इस ग्रन्थमें हरएक व्रतका स्वरूप युक्तिपूर्वक विस्तारसे कहा गया है । हिंसा अहिंसाका जो स्वरूप इस ग्रंथमें कहा गया है; वह ऐसा अपूर्व है कि सुनने पढ़नेवालोंको; दोनोंका समस्त सूक्ष्म रहस्य भेदप्रभेद पूर्वक भले प्रकार समझने एवं मनन करने योग्य है। ग्रंथके प्रारंभ में नयों का दिग्दर्शन भी संक्षेपमें इतना अच्छा किया गया है कि उससे नयोंकी सार्थकताका परिज्ञान हो जाता है। इन सब बातोंसे यह ग्रंथ विद्वानोंके लिये अत्युपयोगी है। इसीलिये श्रीसूरि महाराजने 'विदुषां इस पद से विद्वानोंको लक्ष्य करके इसका प्रणयन किया है। एक आचार्यप्रमुख महर्षिकी रचनासे उसके वेत्ता विद्वान विशेषलाभ उठा सकते हैं। __ 'इस ग्रंथके नामकी सार्थकता आगे श्लोक ६ से १५ तक स्वयं आचार्यमहाराजने बतलायी है, इसलिए यहाँ हमने नहीं लिखी है।
- टीकाकार.
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