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[पुरुषार्थसिद्ध घ पाय
पूर्वक -भले प्रकार (निरूप्य ) मनन करके ( अस्माभिः ) हमारे द्वारा ( अयं ) यह ( पुरुषार्थसिद्धयुपायः ) "पुरुषार्थसिद्धयु पाय" नामका ग्रन्थ (विदुषां ) विद्वान् पुरुषोंके लिये ( उपोद्धि यते ) कहा जाता है।
विशेषार्थ - इस पुरुषार्थसिद्धय पाय ग्रन्थके बनाने की प्रतिज्ञा करते हुए आचार्यने स्वतन्त्र रचनाका निषेध किया है, उन्होंने यह बात प्रकट कर दी है कि जो कुछ हम कहेंगे वह हमारे स्वतन्त्र विचार नहीं होंगे किंतु आर्षमार्गका अनुसरण करके ही हम निरूपण करेंगे । जैनसिद्धान्तका पूर्वापर अच्छी तरह मनन करके ही इस ग्रन्थकी रचना करेंगे, इस कथनसे यह प्रकट होता है कि किसी ग्रन्थकी रचना तभी करनी चाहिए जब कि जैनसिद्धान्तका रहस्य विदित कर लिया जाय; बिना जिनागमका रहस्य समझे तथा उनकी कथनपद्धति को प्रमाणमें लिए बिना किसी भी ग्रन्थरचयिता की स्वतन्त्र की गई ग्रन्थ रचना प्रमाणकोटि में नहीं आ सकती, क्योंकि आर्षग्रन्थोंके जाने बिना और उनकी अविरुद्धता के बिना अपनी ना-समझी एवं अल्पज्ञता के कारण बनाये हुए ग्रन्थमें वस्तुस्वरूप यथार्थ नहीं कहा जा सकता । जैनधर्म सर्वज्ञ प्रणीत है, वह सर्वज्ञदेवके साक्षात् शिष्य गणधरदेव, उनके शिष्य प्रशिष्य अनेक आचार्यों की पूर्वापर अविरुद्ध कथनशैलीसे ज्योंका-त्यों चला आ रहा है, इसलिये जैनधर्म-कथित पदार्थ-परम्परा सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे एवं ज्योंका-त्यों गणधर आचायोद्वारा कहे जानेसे ठीक है, प्रमाणभूत है। यदि भिन्न भिन्न आचार्य अपनी अपनी स्वतन्त्र रचना करते और पूर्वाचार्यप्रणीत ग्रन्थोंकी पद्धति एवं अविरुद्धताका ध्यान न रखते तो आज द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग आदि चारों ही अनुयोगके शास्त्रोंमें अनेक विरोध दीखते, क्योंकि इतना सूक्ष्मगुण द्रव्य पर्यायों का तथा जीवके भावस्वरूप गुणस्थानों आदिका-विवेचन अल्पज्ञों द्वारा न तो किया ही जा सकता है और न एक रूपमें हो ही सकता है । आचार्य कुंदकुदस्वामी, भूतबलि पुष्पदंत, समंतभद्रस्वामी,
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