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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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कांक्षा-सांसारिक वासनाओंको चाहना यह दूसरा अतीचार है, मुझे सम्यग्दर्शनके फलसे स्वर्गादि सामग्री प्राप्त हो जाय अथवा इस लोकमें मेरे धन धान्य पुत्रादिककी विभूति मिल जाय, इसप्रकारकी आकांक्षा रखना भी सम्यक्त्वका अतीचार है । परिणामोंकी विशुद्धता एवं शुभप्रवृत्तिसे सुतरां पुण्योदयवश इस लोक परलोक में भोग्य सामग्री मिल ही जायगी फिर उसकी आकांक्षा रखकर अपने उत्तम फल को हलका बनाना एवं सम्यक्त्वमें दूषण लाना व्यर्थ और हानिकारी है।
विचिकित्सा-ग्लानि एवं घृणा करनेका नाम है । किसी पदार्थमें दोष अथवा मलिनता देखकर थूकना, नेत्र मूद (बंद कर) लेना, नाक सिकोड़ लेना, उस स्थानसे या उस मलिन वस्तुके पाससे तुरंत भाग जाना, चेष्टा खराब कर लेना, मुंह बंद कर लेना ये सब क्रियायें ग्लानिसे होती हैं। मुनिमहाराजके शरीरको देखकर पसीना एवं उसपर लगीहुई धूलिसे आई हुई ऊपरी मलिनतासे घृणा करना पापबंधका कारण है, क्योंकि शरीर तो निकृष्ट-अपवित्र है ही परंतु मुनियोंका परम पवित्र रत्नत्रय गुणोंसे दैदीप्यमान आत्मा उस शरीरमें निवास कर रहा है इसलिए ऊपरी मलिनतासे घृणा न करके गुणोंसे प्रेम करना चाहिये। इसीप्रकार जो स्थान मलिन हैं, दुर्गंधित हैं, जो विष्टादि मलिन वस्तुयें हैं, कोई रोगी पुरुष है उन सबको देखकर उनकी मलिनतापर घृणाभाव या ग्लानिभाव नहीं करना चाहिये। किंतु वस्तुस्वरूप समझकर उनसे औदासीन्यभाव धारण करना चाहिये ।
अन्यदृष्टिसंस्तव-मिथ्यादृष्टियोंकी स्तुति करना उनके चारित्र एवं ज्ञानकी वचनसे प्रशंसा करना, उनकी क्रियाओंको वचन द्वारा महत्त्व देना यह सब अन्यदृष्टि संस्तव नामका चौथा सम्यक्त्वका अतीचार कहलाता है।
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