________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय j
[३३७
कौआ केवल उपलक्षण है, उसका अर्थ यह है कि जितने भी दधिके भक्षक जीव हैं उन सबसे दधिकी रक्षा करना चाहिये । उसीप्रकार स्थूलदृष्टिसे पांच पांच अतीचारोंका विधान किया गया है, जो छोटे छोटे दोष व्रतोंमें अनेक प्रमादवश आते हैं वे सब उन्हीं पांचोंमें गर्भित हैं । व्रतकी जैसी पूर्ण शुद्धि कही गई है उसमें ये अतीचार विघात करते हैं शुद्धिको रोकते हैं पूर्णरूपसे व्रतको नहीं पलने देते, इसलिये प्रमादको छोड़कर सावधानी से इनका परित्यागकर व्रतोंकी पूर्ण रक्षा करना प्रत्येक व्रती श्रावकका कर्तव्य है।
मम्यग्दर्शनके अतोचार शंका तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तवोन्यदृष्टीनां । मनमा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥१८॥
अन्वयार्थ- [शंका ] जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित-आगममें शंका करना [ तथैव कांक्षा ] उसीप्रकार व्रतोंसे सांसारिक फलकी वांछा रखना [ विचिकित्सा | मुनियों के स्वरूपसे एवं पदार्थोसे घृणाभाव धारण करना [ अन्यदृष्टीनां संस्तवः ] अन्य दृष्टि-मिथ्यादृष्टियोंकी स्तुति करना [ मनसा तत्प्रशंसा ] मनसे उनकी और उनके कार्योकी प्रशंसा करना [ सम्यग्दृष्टः अतीचाराः ] सम्यग्दृष्टि के अतीचार कहे जाते हैं। ___ विशेषार्थ-जो अनेकांत वस्तुविधान अथवा लोक एवं चारित्रनिरूपण आगममें कहा गया है वह सत्य है या नहीं, इसप्रकार चित्तमें संदेह लाना, यह शंका नामका सम्यग्दृष्टिका अतीचार है। यह अतीचार सबसे प्रबल है, सम्यक्त्यका सबसे बड़ा अतीचार है । सम्यक्त्व धारण करनेवालोंको आगमपर विश्वास रखनेवालों को इस अतीचारको नहीं लगाना चाहिये । क्योंकि आगम सर्वज्ञदेवद्वारा कहा गया है, सर्वज्ञ देव भूत भविष्यत् वर्तमानके प्रत्यक्षदर्शी और वीतराग हैं, इसलिए उनके द्वारा प्रतिपादित पदार्थ कभी असत्य नहीं हो सकतो, जो जिनेंद्र-सर्वज्ञने पदार्थ विवेचन किया है वही उनके साक्षात् शिष्य गणधरदेव एवं उनके शिष्य प्रशिष्य
४३ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org