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[ पुरुषार्थसिद्धय प.य
अतीचार है अर्थात् किसी व्रतमें थोड़ा दूषण लगनेका नाम ही अतीचार है। इसी बातका खुलासा पंडितप्रवर श्रीआशाधरने सागारधर्मामृतमें इसप्रकार किया है-“सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंशभजनं” अर्थात् जो पुरुष किसी विषयकी मर्यादारूपसे प्रतिज्ञा ले चुका है उसके व्रतमें एक देशभंजन होना अर्थात् अंशरूपसे व्रतमें दूषण आना ही अतीचार कहलाता है । एकदेश व्रतका भंग क्या कहलाता है इसका खुलासा इसप्रकार कि व्रतोंका पालन बहिरंग अंतरंग दोनों रूपसे होता है, यदि केवल अंतरगमें बतभाव हो बहिरंगमें उसके अनुकूल आचरण न हो तो भी व्रतकी रक्षा नहीं हो सकती और न वह व्रतरूप प्रवृत्ति ही कहलायी जा सकती है । तथा यदि वाह्य व्रताचरण हो और अंतरंगमें मर्यादित प्रतिज्ञा न हो तो उसे व्रत नहीं कहा जा सकता, इसलिये दोनों-अंतरंग बहिरंग रूपसे जो पाला जाता है वही व्रत कहलाता है ।
उस व्रतमें या तो अंतरंग भावों में कुछ दूषण आता है तो वह अतीचार कहलाता है, अथवा बहिरंग प्रवृत्तिमें कुछ दूषण आता है तो वह अतीचार कहलाता है और जहांपर अंतरंग बहिरंग दोनोंप्रकारसे वतरक्षाका भाव नहीं रहता वहां उसे अनाचार कहा गया है । अर्थात् व्रत-मर्यादाका लक्ष्य ही भावोंसे उठादेना कि मैं व्रतमर्यादाकी कुछ परवा नहीं करता, तब तो निर्मर्यादप्रवृत्ति-अनाचार है अनाचारमें व्रतका सर्वथा भंग हो जाता है । परंतु अतीचारमें व्रत-मर्यादा तोड़ी नहीं जाती, किंतु किसी कारणवश उसके एक देशमें थोड़ा दूषण लगता है । अतीचार प्रत्येक व्रत के पांच पांच बतलाये गये हैं सम्यक्त्वके पांच, पांचों अणुव्रतोंके पांच पांच. तीन गुणवतोंके पांच पांच शिक्षाव्रतोंके पांच पांच और सल्लेखनाके पांच । इस रीतिसे अब अतीचार श्रावक व्रतोंके ७० होते हैं, ये सत्तर अतीचार उपलक्षण रूपसे समझने चाहिये, वास्तवमें तो और भी बहुत हैं, परन्तु जिसप्रकार कौआसे दहीकी रक्षा करना यह किसी बालकको कहा जाता है तो वहांपर
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