SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय } व्रतधारीको स्वयं मोक्ष मिलती है । इति यो व्रतरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि । वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपद श्रीः || १८० ॥ [ ३३५ NNNN अन्वयार्थ - [ इति ] इसप्रकार [ यः व्रतरक्षार्थं ] जो पुरुष व्रतोंकी रक्षा के लिये [ सकलशीलानि ] समस्त शीलों को [ सततं पालयति ] निरंतर पालन करता है [ तं ] उस पुरुषको [ शिवपदश्री: ] मोक्षलक्ष्मी [ उत्सुका 'सती' ] उत्सुक होती हुई [ पतिवरा इव ] पतिको स्वयं वरण करनेवाली कन्या के समान [ स्वयमेव वरयति ] अपने आप ही वर लेती है । विशेषार्थ - अहिंसादिक पांच अणुव्रत कहलाते हैं और तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, एवं सल्लेखनामरण, ये सब शील कहलाते हैं । शीलोंके पालने से व्रतोंकी रक्षा होती है, अर्थात् उनसे अहिंसादिभावोंकी दृढ़ता एवं निर्विघ्न वृद्धि होती है, इसलिये जो पुरुष समस्त शीलोंको पालता है उसके व्रत भी सुतरां पलते जाते हैं ऐसी अवस्थामें श्रावक महाव्रतों के धारण करनेमें समर्थ हो जाता है कालान्तर में महाव्रतोंको धारणकर वह मोक्ष लक्ष्मीका स्वामी बन जाता है। इसलिये यहांपर उत्प्रेक्षालंकार से बतलाया गया है कि जिसप्रकार स्वयंवर में कन्या पतिको स्वयं वर लेती है उसीप्रकार समस्त शक्ति पालनेवाले पुरुषको मोक्षलक्ष्मी स्वयं वर लेती है अर्थात् व्रतका पालक नियमसे मोक्ष प्राप्त करता है । चाहे उसी भवसे करे या भवांतरसे करे । अतीचारोंकी संख्या अतिचाराः सम्यक्त्वे, व्रतेषु शीलेषु पंच पंचेति । सप्ततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबंधिनी हेयाः ॥ १८१ ॥ Jain Education International अन्वयार्थ – [ सम्यक्त्वे ] सम्यग्दर्शन में [ व्रतेषु ] व्रतों में [ शीलेषु ] शीलोंमें [ पंच पंच ] पांच पांच [ अतीचाराः ] अतीचार होते हैं [ इति अमी सप्ततिः ] इसप्रकार ये सत्तर अतीचार [ यथोदितशुद्धिप्रतिबंधिनः ] जैमी इन व्रत शीलोंकी शास्त्रों में शुद्धि बतलाई गई है। उसके प्रतिबंधी अर्थात् उनमें दूषण लाने वाले हैं इसलिये [ हेया: ] छोड़नेयोग्य हैं । विशेषार्थ - सम्यक्त्वमें या व्रतों में अंशरूपसे भंग होता हो उसीका नाम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy