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________________ [ पुरुषार्थसिद्ध पाय शस्त्रोंके द्वारा [ प्राणान् ] प्राणों को [ व्यपरोपयति ] नष्ट करता है [ तस्य ] उसके [ आत्मबधः सत्यं स्यात् ] आत्मवत्र वास्तव में होता है । ३३४ ] विशेषार्थ — जो पुरुष रागद्वेष मोहके वशवर्ती होता हुआ, श्वांस रोककर मरनेकी चेष्टा करता है, जो जल में अग्निमें स्वयं पड़कर मरता है, विष खा लेता है, छुरी भोंककर या अपने आप बन्दूक आदि शस्त्र चलाकर स्वयं मरता है वह नियमसे आत्मघाती है, कारण कि बिना तीव्रकषायके अपने आप कोई मरनेके लिए अग्नि जल आदिमें नहीं पड़ना चाहता है इसलिये जिसके तीव्रकषाय- प्रमादयोग है वही आत्मघाती है, सल्लेखना मरण करनेवाला न तो मरण चाहता है और न कोई मरनेका प्रयोग या चेष्टा ही करता है और न उसके रागद्व ेष ही है, वह तो केवल मरणसमय निश्चित समझकर परिणामोंको शांत एवं ममत्वहीन बनाता है इसलिये उसके प्रमादयोगका नाम भी नहीं है और जहां प्रमादयोगसे प्राणोंका घात नहीं किया जाता है वहां आत्मघात भी नहीं हो सकता । सल्लेखना अहिंसाभाव है नीयतेऽत्र कपाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुतां । सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसाप्रसिद्धयर्थं ॥ १७६ ॥ - अन्वयार्थ – [ अत्र ] इस सल्लेखना में [ हिंसायाः हेतवः कपायाः ] हिंसा के कारणभूत कपाय [ यतः तनुतां नीयंते ] जिस कारण सूक्ष्म किये जाते हैं [ ततः सल्लेखनां अपि ] इसलिये सल्लेखना को भी [ अहिंसाप्रसिद्धयर्थं प्राहु: ] अहिंसा की प्रसिद्ध केलिये कहते हैं 1 विशेपार्थ- - इस सल्लेखना में कषायभाव जितने घट सके उतने घटाये जाते हैं और कषायभावोंका घटाना ही अहिंसाभावोंका प्रगट होना है क्योंकि कषाय ही तो हिंसा के कारण हैं, अथवा वे स्वयं हिंसास्वरूप हैं इसलिये कषायोंको दूर करना अहिंसाभावों की प्रगटता है अतः सल्लेखना अहिंसाभावके प्रगट करनेकेलिये ही धारण किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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