SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषाथसिद्धय पाय ] । ३३३ विशेषार्थ-यहांपर यह शंका उठाई जा सकती है कि जो पुरुष सल्लेखना धारण करता है वह आत्मघाती क्यों नहीं कहा जाता, कारण वह मरण चाहता है और प्राणोंको शरीरसे हटाने के लिये उद्योग करता है ? इसी शंकाका उत्तर इस श्लोक द्वारा दिया जाता है कि सल्लेखना धारण करनेवाला आत्मघातक किसीप्रकार नहीं कहा जा सकता, कारण वह मरण होनेकी इच्छा नहीं करता, किंतु मरण समय उपस्थित हो जाने पर वह कषायोंको कृषकर अपने परिणामोंकी विशुद्धि करता है । दूसरे सल्लेखनामें वह आत्मघातका कोई प्रयोग नहीं करता किंतु जिससमय समझ लेता है कि अब नियमसे मरण होनेवाला है उससमय सबोंसे क्षमा मांगता है सब परिग्रह व कुटुम्बियोंसे ममत्व छोड़कर शुद्धात्मस्वरूपके चितवनमें मग्न हो जाता है, क्या आत्मघाती ऐसे विशुद्ध परिणाम बना सकते हैं ? वह तो विशेष रागद्वेषभावोंसे आत्मघातकी चेष्टा करता है, मरणजन्य संक्लेशभावोंसे मरता है । किसी शल्य विशेषसे मरनेका उद्योग करता है परन्तु सल्लेखनामें इन बातोंमेंसे एक भी बात नहीं है । न तो किसीप्रकारका रागद्वष ही है न इष्टानिष्ट बुद्धि ही है और न कोई शल्य ही है । प्रत्युतः निरपेक्ष वीतरागविशुद्ध परिणाम हैं । सल्लेखनावाला केवल इतना ही तो करता है कि मरण अवश्य निकट समझकर कषायोंको घटाता रहता है, ममत्व छोड़ता है, क्या इन भावोंको धारण करनेवाला कभी आत्मघातका दोषी कहलाने योग्य है ? कभी नहीं । ___आत्मघाती कौन है ? यो हि कषायाविष्टः कुंभकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात् सत्यमात्मबधः॥१७८|| अन्वयार्थ -[ हि ] निश्चय करके [ यः ] जो पुरुष [ कषायाविष्टः ] कषायसे रंजित होता हुआ [ कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः ] कुंभक, श्वांस रोकना, बल, अग्नि, विष और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy