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________________ ३२८ ] [ पुरुषार्थ सिद्ध पाय शरीर से भी अच्छी तरह निरीक्षण करने के कारण जो दूसरों को पीड़ा नहीं होने देते, जिसप्रकार भौंरा ( भ्रमर ) प्रत्येक पुष्पपर बैठता है परंतु उसे विनष्ट नहीं होने देता, बिना पुष्पको किसीप्रकार आघात पहुँचाये ही उसका रसास्वाद लेता है । उसीप्रकार जो भ्रामरी वृत्तिसे कभी किसी केयहां और कभी किसी के यहाँ आहार लेने जाते हैं किसी एक स्थान में ही मोहित वृत्ति नहीं रखते, और न किसीको किसी प्रकारका कष्ट ही देते हैं जो सदा गृह वास छोड़कर जंगल में निवास करते हैं ऐसे साधुओंका घर आना बड़े ही पुण्योदय से होता है, सहसा नहीं होता फिर भी घर आये हुए साधुओं को जो गृहस्थ दान नहीं देता है वह कितना लोभी है यह बात छिपी नहीं रह सकती अर्थात् जिसके परिणाम घर पधारे हुए रत्नत्रयधारी परम शांतवृत्ति वाले - वीतरागी मुनियोंके लिये भी आहारदान करनेके नहीं होते वह महान् लोभी है ऐसा लोभी पुरुष कभी स्व-पर कल्याण नहीं कर सकता किंतु अपनी आत्माको ठगता है । दान भी अहिंसावत है कृतमात्मार्थ मुनये ददानि भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव ॥ ३७४ ॥ अन्वयार्थ - ( आत्मार्थं कृतं भक्त ) अपने लिये किये हुये भोजनको (मुनये ददानि ) मैं श्रीमुनि महाराज के लिये दान दूं ( इति भावितः त्यागः ) इसप्रकार भावपूर्वक किया हुआ दान ( अरतिविषादविमुक्तः ) अप्रेम और खेद से रहित होता है । शिथिलितलोभः ) लोकायको शिथिल कर देता है इसलिये ( अहिंसा एव भवति ) वह अहिंसा स्वरूप ही हो जाता है । विशेषार्थ - जो पदार्थ अपने लिये तैयार किया जाय और फिर उसको स्वयं देनेके परिणाम हो जांय तो उस समय निश्चयसे लोभ मंद हो जाता है कारण यदि लोभकी तीव्रता होगी तो देनेके परिणाम ही नहीं होंगे, उस समय गृहीताके गुणों में प्रेम भी अवश्य ही हो जाता है क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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