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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ३२६ अपना प्रयोजनीभूत पदार्थ दूसरोंको प्रेमके वश होकर ही दिया जा सकता है अन्यथा नहीं और विषाद भी उस समय नष्ट हो ही जाता है उस पदार्थके दानको जो अपने लिए खेदजनक समझेगा वह उसका दान ही क्यों करेगा इसप्रकार अपने लिये तैयार किये हुए भोजनको जो गृहस्थ भावपूर्वक मुनिमहाराजको देता है उसके उस समय अरति, विषाद और लोभ तीनों ही नष्ट हो जाते हैं और इन तीनोंके नष्ट हो जानेसे उससमय आत्माके हिंसामय भाव रहते हैं इसलिये दानको अहिंसा स्वरूप समझना चाहिये । उपयुक रीतिसे पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत,ये श्रावकके बारह व्रत निरूपण किये गये । अब मरणके पूर्व सल्लेखना धारण करना आवश्यक है उसीका वर्णन किया जाता है । सल्लेखनाका स्वरूप इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतु । सतलमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥१७५।। अन्वयार्थ -( इयं एका एव ) यह एक ही ( मे धर्मस्वं ) मेरे धर्मरूप द्रव्यको (मया समं नंतु ) मेरे साथ ले जाने के लिए ( समर्था ) समर्थ है ( इति सततं ) इसप्रकार निरंतर (भक्त्या पश्चिमसल्लेखना भावनीया ) भक्तिपूर्वक मरणकालमें सल्लंखनाका चितवन करना चाहिये। विशेषार्थ-सत्-लेखना-सल्लेखना, भलेप्रकार कायकषायके कारणोंको घिसना, कमकरना अर्थात् रागद्वष विभावपरिणाम जो संसारके वर्धक हैं, उन्हें कम करना एवं शरीरसे, बंधुवांधवोंसे तथा समस्त पग्ग्रिहसे ममत्व भाव हटाना, कषायोंको मंद करना, इसीका नाम सल्लेखना है । मरणकालमें ऐसे वीतराग-निर्मलपरिणामोंके हो जानेसे आत्मा कल्याणका भाजन होता है, कारण दूसरे भवकी आयुका बंध वर्तमान उपस्थित पर्यायमें बंधता है, वह आयुके त्रिभागमें आठ अपकर्ष कालोंमें होती है । Jain Education in Rational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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