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पुरुषाथसिद्धय पाय ]
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___दानमे अहिंसाधर्म पलता है । हिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने ।
तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टं ॥१७२॥ अन्वयार्थ -( यतः लोभः हिंसायाः पर्यायः ) कारण कि लोभ हिंसाका ही पर्याय है अर्थात हिंसारूप ही है ( 'सः' अत्र दाने निरस्यते ) वह लोभ इस दान देने में दूर किया जाता है । ( तस्मात् ) इसलिये ( अतिथिवितरणं) अतिथिको दान देना ( हिंसाव्युपरमणं एव इष्टं ) हिंसाका त्याग ही सिद्ध हा जाता है । _ विशेषार्थ-दान देना अहिंसा है, अर्थात् हिंसाको दूर हटाना है कारण कि दान देनेसे लोभकषायका त्याग होता है, बिना लोभकषायका त्याग किये दान देनेके परिणाम ही नहीं होते, इसलिये, दानीके लोभकषाय छूट जाता है । लोभकषाय हिंसाका ही दूसरा नाम है। कारण कि कषायमात्र ही आत्माके परिणामोंकी हिंसा करनेवाले हैं इसलिए लोभकषाय भी आत्माको मोहित एवं प्रमत्त बनाता है इसलिए वह भी हिंसास्वरूप है । दान देने से उस लोभकषायरूप हिंसाका नाश होता है इसलिए अतिथिको दान देनेसे अहिंसाधर्मकी सिद्धि होती है अथवा हिंसाभावका परित्याग होता है।
जो दान नहीं देता वह लोभी क्यों है ? । गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते। वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ।।१७३॥ ___ अन्वयार्थ- ( गुणिने ) स्त्नत्रय गुणों के धारण करनेवाले (मधुकरवृत्त्या परान् अपीडयते) भ्रमरकी वृत्तिके समान दूसरोंको नहीं पीड़ा पहुंचानेवाले ( गृहं आगताय ) अपने घर आये हुए ( अतिथये ) माधुकेलिये ( यः न वितरति ) जो दान नहीं देता है ( सः कथं लोभवान् न हि भवति ) वह क्यों निश्चयसे लोभी नहीं है ? अर्थात् अवश्य लोभी है।
विशेषार्थ - जिनकी आत्मामें सम्यदर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र गुण प्रगट हो रहे हैं, जोकिसी जीव को पीड़ा नहीं रखते पहुँचानेका भाव हैं तथा
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