SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० ] [ पुरुषार्थसिद्धयु पाय अथवा अपने यहां उनका आना ही न हो सके तो विषाद-खेद नहीं करना चाहिये । बिना कारण खेद करके पापबंध बांधना मूर्खता है, इसलिये किसी कारणके उपस्थित होनेपर खेद नहीं करना चाहिये। इस बातका हर्ष भी करना चाहिये कि आज मेरे उत्तमपात्रका आहर हो गया है मुझे अनेक गुणोंका लाभ हो गया, मेरे यहां आज उत्तमपात्रके चरण पधारे हैं मेरा घर आज पवित्र हो चुका और मैं अपने धन्यभाग समझता हूं। इस रीतिसे हर्ष मनाना धर्मका दृढ़ता एवं साधुओंमें भक्तिका परिणाम है। बिना धर्ममें दृढ़ता एवं साधुओंमें भक्तिवश विशेष अनुराग हुये आहारदान देनेपर भी अधिक हर्ष नहीं होता। दान देनेपर मान नहीं करना चाहिये, यह भाव हृदयमें कभी नहीं लाना चाहिये कि मेरे यहां मुनिमहाराजका अथवा ऐलक महाराज का आहारदान हो गया है दूसरे पड़ोसीके यहां नहीं हुआ है, इसलिये मैं ऊंचा हूँ, यह नीचा है । सरल एवं विनयभावोंसे रहना ही दाताका सद्गुण है । ये सात गुण दातामें रहने चाहिये, बिना इन गुणोंके दाता का महत्व नहीं है और न वह विशेष पुण्यका लाभ करता है। दानमें कौनसा द्रव्य देने योग्य है रागद्वेषासंयममददुःखभयादिक न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरं ॥१७॥ अन्वयार्थ-[ यत् ] जो [ रागद्वषासंयममददुःखभयादिकं ] राग. द्वप, असंयम. मद, दुःख, भय आदिको [ न कुरुते ] नहीं करता है [ सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरं ] सुतप करने में, स्वाध्याय करने में जो वृद्धि करनेवाला हो [ तत् एव द्रव्य देयं ] वही द्रव्य देने योग्य है। ___ विशेषार्थ -दानमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं देना चाहिये जिससे कि दान ग्रहण करनेवाले तपस्वीके परिणामोंमें किसी प्रकारको रागद्वष उत्पन्न हो जाय, अथवा संयम पलने में कठिनता आ जाय अथवा संयमका घात ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy