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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ ३१६ करना चाहिये किंतु बिना किसीप्रकारकी आकांक्षाके केवल अपने और गृहीताके कल्याणकी सद्बुद्धि रखकर ही दान देना चाहिये । पूर्ण क्षमाभाव होना चाहिए, किसी निमित्तसे भी मुनियोंका अंतराय हो जानेसे किसी सामग्रीकी न्यूनता हो जानेसे अथवा बहुत लेनेवाले हैं किस किसको दू इत्यादि प्रकारसे क्रोध नहीं उत्पन्न होना चाहिये । मायाचार नहीं होना चाहिये किसीप्रकारकी अशुद्धि रह जानेपर वचनसे यह कहना कि हां ! सब शुद्ध है वाक्कपटता है । मनमें कोई भाव हो उसे प्रकाशमं दूसरे रूपसे ही दिखा देना यह मनकी कपटता है। मुख्यतासे कपटवृत्ति मनमें ही होती है उसीको प्रयोग वचन व काय द्वारा किया जाता है। माया एक शल्य है, यह दाताके गुणोंका लोप करनेवाली कषाय है इसलिये सरल एवं शुद्ध-विकाररहित परिणाम रखना अत्यावश्यक है। किसी दूसरेने मुनियों को आहारदान दिया हो तो उसे देखकर उस देनेबालेसे ईर्ष्या करना कि इसके यहां क्यों आहार हो गया, अथवा इसने केवल मांढका आहार दिया है मैं कल दूध आदि बहुमूल्य पदार्थों का दान दूंगा फिर इसकी अपेक्षा मुझे अधिक यश मिलेगा इसप्रकार दूसरे दाता से ईर्ष्याभाव धारण करना असूया कहलाती है । वैसा भाव नहीं धारण करना अनुसूया कहलाती है। जब निरपेक्ष शुद्धभावसे स्वपरकल्याणके लिये ही दान देनेका उद्देश्य है तो दूसरेको देते हुए भी हर्षभाव ही धारण करना चाहिये, उसकी प्रशंसा करनी चाहिये कि तू धन्य है और तेरे आज उत्तमपात्र पधारे और तूने उन्हें विधिपूर्वक आहारदान कराकर अपनेको कृतार्थ करलिया, इसप्रकार अनुसूया ईर्ष्यारहित भाव धारण करना चाहिये । किसी अंतरायके हो जानेसे मुनियोंका यदि आहार न हो सके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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