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३.२]
[ पुरुषार्थसिय पाय
___ अन्वयार्थ --[ विविक्तिवसति ] एकांत स्थानका [श्रित्वा ] आश्रय करके [ समस्त. सावद्ययोगं अपनीय ] समस्त पाप-पंच हिंसादि पापयोगोंको दूर करके [ सर्वेद्रियार्थविरतः ] सर्व इंद्रियों के विषयोंसे विरक्त होता हुआ [ काय मनौवचनगुप्तिभिः ] कायगुप्ति, मनोगुप्ति, वचनगुप्तिको धारण करके [ तिष्ठेत् ] ठहरे ।।
विशेषार्थ-सप्तमी और त्रयोदशीके दोपहर पीछे ही किसी एकांत स्थानमें या चैत्यालयमें प्रौषधोपवास करनेवाला बैठ जाय और सम्पूर्ण पापोंका त्याग कर दे, तथा समस्त इंद्रियोंके विषयोंको छोड़ दे और मनको, वचनको, कायको वशमें कर ले, तीनों योगोंको किसीपकार चलायमान नहीं होने दे।
और क्या करे ? धर्मध्यानशक्तो वासरमतिवाह्य विहितसांध्यविधिः । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४॥
अन्वयार्थ (धर्मध्यानाशक्तः ) धर्मध्यानमें तल्लीन हो ( वासरं अतिवाह्य ) उम दिनको बितावे ( विहितसांध्यविधिः ) पीछे सायंकाल में संध्याको जो कुछ विधि है उसे परा करे, पश्चात् ( स्वाध्यायजितनिद्रः ) स्वाध्यायसे निद्रापर विजय पाकर (शुचिसंस्तरे ) पवित्र आसन पर (त्रियामां गमयेत ) रात्रि विताये।
विशेषार्थ-सप्तमी और त्रयोदशीका आधा दिन धर्मध्यानमें ही वितावे और किसी सांसारिक बातका पूसंग भी नहीं आने दे क्योंकि उसपूकारक पूसंगसे अशुभास्रव होगा, परिणामोंमें मलिनता एवं कषायभावोंकी उत्पत्ति होगी इसलिये केवल धर्मध्यान ही करता रहे, धर्मका स्वरूप विचार करे, आत्मा अथवा अहँतका स्वरूप विचार करे, कर्मों के विपाकका विचार करे कि ये कर्म किसपूकार आत्माको दुःखी एवं भ्रमणशील बना रहे हैं इनका छुटकारा किसपूकार जल्दी होगा इन कर्मों से जीवोंका किस प्रकार अपाय-अनर्थ हो रहा है, लोककी रचना किसपकार है, जीव कहां कहां रहते हैं इस संसारमें जीवके उद्धारका कारण एक जिनेन्द्रकी आज्ञा ही है। यदि जिनेन्द्रकी आज्ञापर जीव चलने लग जाय तो फिर उनके कल्याणमें
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